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ताओ उपनिषद भाग २
जैसे समझें कि अगर कोई शिकारी पक्षियों को तीर मारने की कला सीख रहा है, तो पक्षियों को, आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को तीर मारने में एक सूक्ष्म गणित का उपयोग करना पड़ता है। क्योंकि पक्षी जहां है, अगर आपने वहां तीर मारा, तो आपका तीर कभी भी नहीं लगेगा। पक्षी जहां होगा कुछ क्षण बाद, वहां आपको तीर मारना पड़ेगा। पक्षी अभी आकाश में मेरे आंख के सामने है। अगर मैं सीधा वहीं तीर मारूं, तो पक्षी तो तब तक हट चुका होगा जब तक मेरा तीर पहुंचेगा। मुझे तीर वहां मारना पड़ेगा, जहां पक्षी अभी नहीं है और मेरे तीर पहुंचने पर होगा। इसलिए धनुर्विद्या की कला यह कहेगी कि अगर चलते हुए जीवन, उड़ते हुए पक्षी को तीर मारना हो, तो वहां मारना जहां पक्षी न हो। अगर वहां मारा जहां पक्षी है, तो तीर व्यर्थ चला जाएगा। यह उसकी पहेली हुई। अगर मृत पक्षी बांध कर रखा हो वृक्ष में, तो वहीं तीर मारना जहां पक्षी है।
मृत गणित सीधा चलता है। जीवन का गणित सीधा नहीं चल सकता।
लाओत्से कहता है, अगर सफलता चाहिए हो, तो सफलता से बचना; असफलता चाहिए हो, तो सफलता को आलिंगन कर लेना। लाओत्से कहता है, अगर मिटना हो, मरना हो, तो जीवन को जोर से पकड़ना; और अगर जीना हो, तो जीवन को छोड़ देना, पकड़ना ही मत। और इस जगत में अगर सुख पाना हो, तो सुख की तलाश ही मत करना और सुख को टटोलते मत रहना। अगर ऐसा किया, तो दुख मिलेगा। अगर सुख पाना हो, तो दुख को टटोलना और दुख को खोजना। जो सुख को खोजेगा है, वह सुख को खो देता है; जो दुख को खोजता है, वह दुख को खो देता है। जो सुख को खोजता है, वह दुख को पा लेता है; और जो दुख को खोजने निकल पड़ता है, उसे दुख कभी मिलता ही नहीं है।
इसे हम ऐसा देख पाएं, तो हमारे जीवन का पूरा रास्ता और ढंग का हो जाए; और हमारे कदम और ढंग से उठे; और हमारे देखने की, सोचने की, हमारा पूरा दर्शन, हमारी पूरी दृष्टि और हो जाए। ऐसी दृष्टि जब किसी की हो जाए, तो उसे मैं संन्यासी कहता हूं।
लेकिन हम तो जिसे संन्यासी कहते हैं, वह भी संसारी के गणित से सोचता है। वह भी परमात्मा को खोजने । निकलता है। ध्यान रहे, जो परमात्मा को खोजने निकला, जितनी ताकत से खोजने निकलेगा, उतना ही पाना मुश्किल है। यह गणित सिर्फ धन के लिए ही लागू नहीं होता, यह धर्म के लिए भी लागू होता है। परमात्मा कोई ऐसी चीज नहीं है कि आप उठाए लकड़ी, रखे कंधे पर और निकल पड़े। तो आपके हाथ में लकड़ी ही रह जाने वाली है; परमात्मा नहीं मिलेगा। परमात्मा कोई वस्तु नहीं है कि आप खोजने निकल पड़े। परमात्मा एक अनुभव है; जब आप नहीं होते, खोजने वाला नहीं होता, तब प्रकट होता है। तो जो खोजने निकला है, वह मुश्किल में पड़ जाएगा। क्योंकि खोजने में तो खोजने वाला मौजूद ही रहता है।
इसलिए संन्यासी का अहंकार बहुत सघन हो जाता है, भयंकर हो जाता है। परमात्मा को खोज रहा है! अगर आप उससे कहेंगे, तो वह कहेगा, तुम क्या हो, तुच्छ! संसार की चीजें खोज रहे हो, दो कौड़ी की! हम अमोलक रतन खोज रहे हैं। और तुम क्षणभंगुर सुखों में पड़े हुए पापी हो! और हम मोक्ष खोज रहे हैं। तो स्वाभाविक उसकी अकड़ तेज हो जाए, वह आपके साथ न बैठ सके, उसे सिंहासन पर बिठाना पड़े। यह बिलकुल स्वाभाविक है। यह स्वाभाविक है इसलिए कि संसार का ही गणित काम कर रहा है अभी भी। अभी भी वही काम कर रहा है।
मैं एक जापानी फकीर तातासुसु के जीवन को पढ़ता था। तातासुसु को आकर अगर कोई उसकी स्तुति करे, तो तातासुसु सुन ले सारी बात और फिर कहे कि मालूम होता है तुम किसी और आदमी के पास आ गए। क्योंकि तुमने जितनी बातें बताईं, इनमें से कोई भी बात मुझमें नहीं है। मालूम होता है तुम किसी और से मिलने निकले थे और किसी और के पास आ गए। मैं वह आदमी नहीं हूं।
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