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सफलता के स्वतने, अळंकार की पीड़ा और स्वर्ग का द्वार
था-अहंकार के पूर्व। फिर अहंकार आया और जगत और सपने में फासला मालूम पड़ने लगा। वह फासला मेरे मैं के ही कारण है। फिर वह मैं दुबारा गिर गया। अब, अब जगत भी सपने जैसा मालूम होने लगा।
मृत्यु के क्षण में हमारा निर्मित मैं टूटता है, बिखरता है। एक-एक जगह से उसकी खूटियां उखड़ने लगती हैं। वे उखड़ती खूटियां ही हमारी पीड़ा हैं। लेकिन काश, हमें याद आ सके कि जब मैं नहीं था हमारे भीतर तब भी मेरा होना था, तो मृत्यु में भी हम उतने ही आनंद से प्रवेश कर सकते हैं, जितने आनंद से हम जीवन में प्रवेश करते हैं। और जितने आनंद से रात हम निद्रा में प्रवेश करते हैं, उतने ही आनंद से हम मृत्यु की महानिद्रा में प्रवेश कर सकते हैं।
लेकिन कोई मृत्यु के क्षण में अचानक यह बात घट नहीं सकती है। जिसने पूरे जीवन सफलता को संजोया हो, असफलता को त्यागा हो; जिसने पूरे जीवन अहंकार निर्मित करने का एक भी मौका न चूका हो, झूठा भी निर्मित होता हो तो भी न चूका हो...।
इसलिए खुशामद इतनी हमें प्रीतिकर मालूम होती है। और खुशामद करने वाला जानता है कि झूठ है और सुनने वाला भी जानता है कि झूठ है, फिर भी स्तुति कोई कर रहा हो, तो मना करने की हिम्मत नहीं होती। कोई आपकी खुशामद कर रहा हो और आपसे कह रहा हो कि आपसे सुंदर मैंने व्यक्ति नहीं देखा, आपको भी आईने के सामने कभी ऐसा खयाल नहीं आया है, लेकिन फिर भी उस स्तुति के क्षण में मान लेने का मन होता है। दूसरे की निंदा मान लेने का मन होता है; स्वयं की स्तुति मान लेने का मन होता है। दूसरे की निंदा को हम कभी इनकार नहीं करते। वह कितनी ही बेबूझ मालूम पड़े, तो भी इनकार नहीं करते। और अपनी स्तुति को हम कभी इनकार नहीं करते, वह भी कितनी ही असंगत मालूम पड़े। स्वयं की स्तुति सदा ही स्वीकृत मालूम पड़ती है। स्वयं की स्तुति में कभी भी ऐसा नहीं मालूम पड़ता कि कोई चीज सीमा के बाहर जा रही है। सभी चीजें सीमा के भीतर होती हैं। दूसरे की निंदा में सभी चीजें सीमा के भीतर होती हैं। सभी कुछ मानने योग्य होता है।
तो दूसरे की निंदा में रस लिया हो, स्वयं की प्रशंसा में आनंद पाया हो, सफलता के क्षण में पैर जमा कर खड़े हो गए हों बीच चौराहे पर, असफलता के क्षण में अंधेरे में छिप गए हों; सम्मान को खोजा हो, तलाशा हो, असम्मान की तरफ पीठ किए हुए भागते रहे हों; तो मरते क्षण में एकदम से कोई अहंकार को नहीं छोड़ सकता।
लेकिन जिसने इससे उलटा किया हो, दूसरे की निंदा में संदेह पैदा किया हो, अविश्वास पैदा किया हो, अनास्था दिखाई हो; स्वयं की स्तुति में संदेह पैदा किया हो, स्वयं की स्तुति में अनास्था दिखाई हो, स्वयं की स्तुति को मान न लिया हो; सम्मान जब कोई देने आया हो, तो हजार बार सोचा हो; असम्मान जब कोई देने आया हो, चुपचाप स्वीकार कर लिया हो; असफलता में प्रकट हो गया हो, सफलता में छिप गया हो; ऐसा व्यक्तित्व अगर चलता रहे, तो मृत्यु के क्षण में मुक्ति संभव हो पाती है। और ऐसे व्यक्ति के लिए नर्क के द्वार तो बंद ही हो गए; क्योंकि चाभी ही खो गई, जिससे नर्क के द्वार खोले जा सकते थे। और ऐसे व्यक्ति के लिए स्वर्ग का द्वार खुल गया। स्वर्ग का अर्थ है: ऐसे व्यक्ति के लिए सतत सुख का द्वार खुल गया। ऐसा व्यक्ति कहीं भी हो, कैसा भी हो, सुख पा ही लेगा। ऐसे व्यक्ति से सुख छीनने का उपाय ही नहीं है। ऐसा व्यक्ति हमेशा ही सुखद पहलू को खोज लेगा और दुखद पहलू को उसकी आंख पकड़ ही नहीं पाएगी। ऐसा व्यक्ति कंकड़-पत्थरों में भी हीरे देख लेगा। और ऐसे व्यक्ति को कांटों में भी फूल खिल जाते हैं। और ऐसे व्यक्ति के लिए अंधेरा भी प्रकाश हो जाता है और मृत्यु परम जीवन।
इसलिए मैंने कहा कि जीवन गणित नहीं, एक पहेली है। गणित इसलिए नहीं कि गणित में दो और दो चार होते हैं। पहेली में इतना आसान हिसाब नहीं होता। पहेली में गणित कहीं चलता है, परिणाम कुछ होते हैं। पहेली में परिणाम विपरीत हो जाते हैं। लेकिन पहेली का भी अपना सूक्ष्म गणित है। लाओत्से उसी की बात कर रहा है। और जो इस पहेली को समझाना चाहे, उसे उस सूक्ष्म गणित को समझ लेना चाहिए।
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