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________________ तो बारह वर्ष को बहुत बड़ी बात मत समझें। और प्रतीक्षा को काफी न समझें। किनारे पर बैठने, साक्षी होने, जागरूक होने की बात पर ध्यान दें। ताओ उपनिषद भाग २ दुसरा प्रश्न : लाओत्से करते हैं कि ताओ में प्रतिष्ठित संतजनों की अस्मिता पिघलते बर्फ की तरह सतत विसर्जित होती रहती हैं। तो क्या अस्मिता के रहते हुए भी कोई परम सत्य में प्रतिष्ठित हो सकता है? और क्या अस्मिता के रहते भी कोई व्यक्ति संत व ज्ञानी कहा जा सकता ह? अस्मिता की स्थिति मानसिक ही हैं या मन के पार आध्यात्मिक है? फिर आपने कहा कि अस्मिता के पूर्ण विसर्जन पर संत परमात्मा हो जाता है। तो क्या संत अस्मिता के रहने पर परमात्मा से वियुक्त रहता है? तीन बातें हैं। दो शब्दों को ठीक से समझ लेना चाहिए। एक है अहंकार और दूसरा है अस्मिता। अहंकार का अर्थ है: मैं शरीर से एक हूं। जब शरीर से चेतना जुड़ जाती है, जुड़ा हुआ अनुभव करती है, तादात्म्य कर लेती है, एकता बना लेती है, तो अहंकार निर्मित होता है। जब चेतना शरीर से अपने को अलग जान लेती है, भिन्न पहचान लेती है, तादात्म्य टूट जाता है, तो अहंकार टूट जाता है। लेकिन शरीर से मैं अलग हूं, यह जान लेना जरूरी नहीं है, काफी नहीं है यह जानने के लिए कि मैं परमात्मा से एक हूं। मैं शरीर से अलग हूं, इस भाव में अगर कोई ठहर जाए और परमात्मा के साथ एकता को अनुभव न कर पाए, तो इस स्थिति का नाम अस्मिता है। मैं शरीर के साथ एक हूं, इस स्थिति का नाम अहंकार। मैं शरीर से अलग हूं, इस स्थिति का नाम अस्मिता। और मैं परमात्मा के साथ एक हूं, यह अस्मिता के भी पार। लाओत्से कहता है कि संत के लिए एक बात तो अनिवार्य है कि उसका अहंकार टूट जाए; वह जान ले कि मैं शरीर नहीं हूं, मन नहीं हूं। इतना पहचान ले, यह तो संत का लक्षण है। लेकिन संत यहां भी रुक सकता है। बहुत संत यहीं रुक जाते हैं। जिन संतों ने यह कहा है कि परमात्मा नहीं है, बस आत्मा ही है, वे संत इसी वर्ग के हैं। उन्होंने एक कड़ी तो तोड़ दी बंधन की, उन्होंने गलत से तो नाता तोड़ लिया और यह बड़ी घटना है। उन्होंने क्षुद्र से तो संबंध अलग कर लिया और यह बहुत बड़ी क्रांति है। लेकिन आधी है क्रांति। अभी एक काम और करना है : विराट से संबंध जोड़ना है। जब विराट से भी संबंध जुड़ता है, तो अस्मिता भी खो जाती है। __मैंने आपसे कहा, मैं हूं; इसमें दो शब्द हैं। मैं अहंकार है और हूं अस्मिता है। संत का मैं तो गिर जाता है, सिर्फ हूं रह जाता है-एमनेस, हूं। लाओत्से कहता है, यह संत की परिभाषा है कि उसकी अस्मिता अभी है, अहंकार खो गया। यह अस्मिता अगर सघन होती रहे, मजबूत होती रहे, तो अहंकार वापस लौट सकता है। अगर अस्मिता और जम जाए, गहरी हो जाए, तो अहंकार वापस लौट सकता है। यह अस्मिता पिघलती रहे—इसलिए यह बात भी लाओत्से ने जोड़ी कि संत की अस्मिता बर्फ की तरह पिघलती रहेगी; जैसे धूप में पड़ी बर्फ हो, पिघलती रहेगी-पिघलती रहे, तो एक दिन अस्मिता भी खो जाएगी। मैं तो खो गया; हूं भी एक दिन खो जाएगा। उस दिन शुद्ध अस्तित्व बचेगा। उस दिन, लाओत्से कहता है कि फिर संत भी कहने का कोई अर्थ न रहा। उस दिन वह व्यक्ति, वह लहर सागर के साथ एक हो गई। संत होना भी तो दूरी है। असंत बहुत दूर होगा; संत निकट होगा। लेकिन निकटता भी एक दूरी है। निकटता भी एकता नहीं है। संत भी दूर है। पास है, बहुत पास है, असंत से बहुत ज्यादा पास है। लेकिन कितने ही पास हो, 244
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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