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________________ हला प्रश्न : भगवान श्री, जल के निर्मल होने की प्रतीक्षा में बारह वर्षों से कर रहा हूं। किंतु परिस्थितियों की गाड़ियां तो गुजरती रहती है, और यह आजीवन होता रहेगा। फिर भी क्या प्रतीक्षा करता रहूं? प्रतीक्षा महत्वपूर्ण है, जरूरी, लेकिन काफी नहीं है। प्रतीक्षा के साथ-साथ मन के किनारे बैठना भी आना चाहिए। अगर नदी की धार में ही बैठ गए और प्रतीक्षा की, तो परिणाम न होगा। नदी की धार में बैठ रहे, तो खुद के होने से भी गंदगी उठती रहेगी। धार के बाहर, तट पर बैठने की कला ही ध्यान है। प्रतीक्षा ध्यान का अनिवार्य अंग है। लेकिन प्रतीक्षा ही ध्यान नहीं है। जो प्रतीक्षा नहीं कर सकता, वह तो ध्यान कर ही नहीं सकेगा। लेकिन जो प्रतीक्षा को ही ध्यान समझ ले, वह भी भूल में है। ध्यान है किनारे पर बैठने की कला। मन की धार है, विचार हैं। मन के बीच ही बैठ कर अगर आपने मन को कितनी ही प्रतीक्षा से देखा, तो भी मन के बाहर कभी न हो पाएंगे। और न ही मन की धार कभी शुद्ध हो पाएगी। आपकी मौजूदगी भी मन को अशुद्ध बना रही है। आप मन के बाहर हो जाएं, किनारे से बैठ कर देखें, मन को देखें दूर से। जैसे कोई आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को देखे, ऐसे ही दूर से अपने विचारों को चलते हुए देखें। जैसे कोई नदी को बहता हुआ देखे, ऐसे ही किनारे बैठ कर अपने मन को भी बहता हुआ देखें। जितनी यह दूरी बढ़ेगी, उतनी ही जल्दी मन शांत और शुद्ध हो जाएगा, एक बात। दूसरी बात, जीवन की अनंत कथा में बारह वर्ष कुछ भी नहीं हैं। जीवन के अनंत विस्तार में बारह वर्ष का क्या मूल्य है? तो ऐसा मत सोचें कि बारह वर्ष प्रतीक्षा की, तो बहुत बड़ी प्रतीक्षा हो गई। क्योंकि बारह वर्ष प्रतीक्षा की है, तो बारह लाख जन्म उस नदी को गंदा करने का पूरा प्रयास किया है। अनुपात कुछ भी नहीं है। इसलिए मैं कहता हूं: अनंत प्रतीक्षा। लेकिन अनंत प्रतीक्षा का यह अर्थ नहीं है कि जन्मों-जन्मों प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। करने की तैयारी होनी चाहिए। घटना तो एक क्षण में भी घट सकती है। और जितनी बड़ी होगी तैयारी प्रतीक्षा की, उतनी जल्दी घटना घट जाती है। क्यों? क्योंकि अधैर्य भी मन को आंदोलित करता है। परिस्थितियों की गाड़ियां मन की गंदगी को उतना नहीं उठातीं, जितना खुद का अधैर्य मन की गंदगी को उठा देता है। प्रतीक्षा का अर्थ है कि मैं अब धैर्य को उपलब्ध हुआ। कभी भी हो घटना, मैं प्रतीक्षा करूंगा जन्मों-जन्मों तक, मेरा कोई अधैर्य नहीं है, मेरी कोई जल्दी नहीं है। जितनी हो जल्दी, उतनी देर लगती है। और जितनी देर तक प्रतीक्षा करने के लिए राजी हो मन, उतनी जल्दी घटना घट जाती है। 243
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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