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तटस्थ प्रतीक्षा, अस्मिता-विसर्जन व अनेकता में एकता
फासला अभी कायम है। लाओत्से का अंतिम जो लक्ष्य है, वह है जब इतना फासला भी न रह जाए, पास होना भी मिट जाए। दूर होना तो मिट ही गया, पास होना भी मिट जाए। दूरी तो खो गई, निकटता भी खो जाए। तभी, तभी एकता उपलब्ध होगी।
साधारणतः हमें दिखाई पड़ता है : दूरी खो गई, तो एकता हो गई। दूरी खोने से एकता नहीं होती, बल्कि सच तो यह है कि जितने निकट आते हैं, उतनी दूरी मालूम पड़ती है। असंत को कभी भी नहीं अखरती ईश्वर की दूरी। ईश्वर की दूरी असंत को अखरती ही नहीं। दूरी इतनी बड़ी है कि उसे पता भी नहीं चलता। वह पूछता है, कहां है ईश्वर? दूरी इतनी बड़ी है कि उसे ईश्वर कहीं दिखाई भी नहीं पड़ता।
संत की पीड़ा बढ़ जाती है। निकट इतने होता है कि हाथ बढ़ाए और ईश्वर है, श्वास ले और ईश्वर है, हिले और ईश्वर से धक्का लगता है। इतनी निकटता है! और तभी, जिसको संतों ने विरह कहा है...। असंत को विरह पैदा नहीं होता। वह इतने दूर है कि विरह का कोई सवाल नहीं है। संत को विरह पैदा होता है। इतने निकट है, फिर भी एक नहीं हो पाता। वह निकटता भी कष्ट देने लगती है। बहुत झीना सा पर्दा रह जाता है।
लेकिन दीवार हो बीच में, तो हमें दिखाई भी नहीं पड़ता उस पार। आकांक्षा भी नहीं होती; आशा भी नहीं उमड़ती; प्यास भी नहीं जगती। अहंकार पत्थर की दीवार है। अस्मिता बहुत ट्रांसपैरेंट, पारदर्शी कांच की दीवार है। उस पार सब दिखाई पड़ता है, जैसे बीच में कोई दीवार ही न हो। लेकिन जब भी संत बढ़ने की कोशिश करता है, तभी वह दीवार टकराती है। तब पीड़ा भारी हो जाती है और विरह सघन हो जाता है।
संतों ने ही ईश्वर का विरह जाना है। संत भी वियुक्त है, अभी संयुक्त नहीं है। एक पारदर्शी दीवार संत को भी दूर करती है। जिस दिन यह पारदर्शी दीवार भी पिघल जाती है, उस दिन न दूरी रहती है, न निकटता रहती है। उस दिन एकता सधती है। उस दिन संत खो जाता है और परमात्मा ही शेष रह जाता है।
यह जो अस्मिता है, यह आध्यात्मिक स्थिति है या मन की? यह भी पूछा है।
यह मन की अंतिम स्थिति है और अहंकार मन की प्रथम स्थिति है। अहंकार मन की स्थूलतम स्थिति है, अस्मिता मन की सूक्ष्मतम।
हम ऐसा समझें कि मन है बीच में। एक तरफ जगत है और एक तरफ परमात्मा है, और मन है बीच में। जहां मन जगत से जुड़ता है, वहां अहंकार पैदा होता है। और जहां मन परमात्मा से जुड़ता है, वहां अस्मिता खड़ी है। ये दो जोड़ हैं। जहां मन जगत से जुड़ता है, उस जोड़ का नाम है अहंकार। और जहां मनुष्य का मन परमात्मा से जुड़ता है या टूटता है क्योंकि सब जोड़ तोड़ भी होते हैं; जहां चीजें जुड़ती हैं, वहीं टूटती भी हैं-वह है अस्मिता।
संत लाओत्से कहता है उसे, जिसका पहला जोड़ टूट गया, जगत से संबंध विच्छिन्न हुआ; लेकिन जिसका अभी दूसरा तोड़ कायम है, अभी परमात्मा से एकता नहीं सधी। तो अस्मिता कायम है। अस्मिता मन का सूक्ष्मतम रूप है और अहंकार मन का स्थूलतम। लेकिन दोनों ही मन की घटनाएं हैं।
ध्यान रहे, असंत भी मन है और संत भी। मन के बाहर जाकर तो दोनों नहीं रह जाते। श्रेष्ठतम भी मन के भीतर है और निकृष्टतम भी। क्योंकि मन के पार जाकर तो न श्रेष्ठ रहता है और न निकृष्ट। अशुभ भी मन का है, शुभ भी। बुरा भी मन का है, भला भी। मन के पार जाकर न तो बुरा रह जाता है और न भला। द्वंद्व खो जाते हैं। जब तक द्वंद्व है, तब तक जानना कि मन है। जहां द्वंद्व नहीं, वहां मन नहीं। संत भी द्वंद्व का हिस्सा है। असंत और संत दो छोर हैं द्वंद्व के।
अगर यह खयाल में आ जाए, तो अंतिम छलांग! पहली छलांग अहंकार से और अंतिम छलांग अस्मिता से। पहली छलांग 'मैं' से और अंतिम छलांग 'होने' से।
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