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विश्रांति से समता व मध्य मार्ग से मुक्ति
पहले सूत्र में लाओत्से ने कहा कि किसी भी क्रिया की पूर्णता में प्रवेश कर जाना चाहिए। क्रिया की, ध्यान रखना, किसी भी क्रिया की पूर्णता में प्रवेश करना चाहिए-समग्र, टोटल-तो उस क्रिया के विपरीत जो स्थिति है, वह अपने आप चली आती है। इसे स्मरण रख कर जो जीएगा, वह समता को उपलब्ध हो जाता है। दूसरे सूत्र में लाओत्से कहता है, जो व्यक्ति ताओ को उपलब्ध होता है-धर्म को, स्वभाव को, परमात्मा को-वह हमेशा स्वयं .को अति पूर्णता से बचाए रखता है। कर्म में तो पूर्णता होनी चाहिए, लेकिन स्वयं को-दूसरा सूत्र स्वयं के संबंध में है, पहला सूत्र कर्म के संबंध में है। पहले सूत्र के संबंध में लाओत्से कहता है, द्वंद्व है जगत, एक को पूरा करो, अगर पूरा करो, तो विपरीत में प्रवेश हो जाता है। सहज, कोई कठिनाई नहीं है। और जब ये दोनों चीजें सध जाती हैं, तो समता, संतुलन निर्मित होता है। दूसरे सूत्र में कहता है, लेकिन तुम स्वयं पूर्ण बनने के पागलपन में मत पड़ना। क्योंकि अगर स्वयं तुम पूर्ण बनना चाहो, तो जो परिणाम होंगे, वे ये होंगे कि तुम क्षय को उपलब्ध हो जाओगे और फिर-फिर तुम्हें जन्म लेना पड़ेगा।
यह बड़ा अजीब मालूम पड़ता है। क्योंकि साधारणतया हम सभी परफेक्शनिस्ट हैं। सारी दुनिया पूर्णतावादी है। हर आदमी पूर्ण होने की कोशिश में लगा है। लाओत्से कहता है, पूर्ण नहीं होना है, समग्र होना है। अंग्रेजी में दो शब्द हैं, वे हमें खयाल में ले लेने चाहिए। एक शब्द है परफेक्ट और एक शब्द है होल। पूर्ण और समग्र। पूर्ण होने का मतलब है, किसी एक दिशा में शिखर को छू लेना। और समग्र होने का अर्थ है, सभी दिशाओं को संतुलन से स्पर्श कर लेना। ऐसा समझें हम। एक व्यक्ति है। अगर वह ईमानदारी में पूर्ण होना चाहे, पूर्ण ईमानदार होना चाहे, तो उसका जीवन शांत जीवन नहीं होगा। बहुत तनाव से भरा हुआ जीवन हो जाएगा। चौबीस घंटे बेईमानी से लड़ने की ही स्थिति बनी रहेगी। और खींच-खींच कर उसे अपने को शिखर पर रखना पड़ेगा। यह अहंकार होगा, ईमानदार का अहंकार होगा। कठिन भी हो सकता है, कठोर, सख्त भी हो सकता है।
लाओत्से कहता है, ईमानदारी या बेईमानी, बेईमानी में भी पूर्ण होने की जो कोशिश में लगा है वह भी परेशानी में पड़ेगा और ईमानदारी में जो पूर्ण होने की कोशिश में लगा है वह भी परेशानी में पड़ेगा, क्योंकि ईमानदारी और बेईमानी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो अच्छा होने की कोशिश में लगा है वह भी कठिनाई में पड़ेगा, जो बुरा होने की कोशिश में लगा है वह भी कठिनाई में पड़ेगा, क्योंकि दोनों एक ही चीज के दो पहलू हैं। और आप सिक्के का एक हिस्सा बचा रहे हैं और दूसरा फेंकने की कोशिश कर रहे हैं। आप कठिनाई में पड़ेंगे।
लाओत्से कहता है, पूर्ण होने की कोशिश ही मत करना, दोनों द्वंद्वों के बीच में ठहर जाना। न बेईमान बनना और न ईमानदार बनना।
यह बड़ी कठिन बात है। ईमानदार बनना आसान है, बेईमान बनना आसान है, दोनों के बीच ठहर जाना बहुत ही कठिन है। क्यों? क्योंकि हमें दोनों बातें समझ में आती हैं। बेईमान बन जाओ, बिलकुल समझ में आता है। ईमानदार बन जाओ, समझ में आता है। दोनों एक-दूसरे के विपरीत हैं। रास्ते साफ मालूम पड़ते हैं।
लाओत्से कहता है, कहीं भी पूर्ण बनने की कोशिश मत करना, बीच में ठहर जाना। ईमानदारी और बेईमानी के, शुभ और अशुभ के, अंधेरे और प्रकाश के, साधुता और असाधुता के बीच में ठहर जाना। क्योंकि जो बीच में ठहर जाएगा, उसके सारे तनाव समाप्त हो जाते हैं। क्योंकि सब तनाव द्वंद्व से पैदा होते हैं। कर्म में पूरे जाना और स्वयं में हमेशा बीच में ठहर जाना।
यहां लाओत्से और बुद्ध में बड़ा तालमेल है। शायद बुद्ध की बात चीन में इतनी प्रभावी हो सकी, उसका कारण लाओत्से का यह सूत्र था। बुद्ध ने मज्झिम निकाय, दि मिडिल वे की चर्चा की है। और जगत में मज्झिम निकाय के, मध्य मार्ग के बुद्ध सबसे बड़े प्रस्तोता हैं। बुद्ध ने कहा, बीच में! कहीं अति पर मत जाना।
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