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विश्रांति से समता व मध्य मार्ग से मुक्ति
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यह जो आदमी परिस्थितियों से हट रहा है, यह आदमी अपने को बदल नहीं रहा है। अपने को तो वैसा ही बचाए हुए है। यह भी हो सकता था कि विपरीत परिस्थितियां बनी रहतीं, तो शायद इसे कभी अपने को बदलना पड़ता। अब वह भी जरूरत न रहेगी। क्रोध आता ही रहता, तो एक न एक दिन इसको लगता कि क्रोध पागलपन है। अब इसने क्रोध की परिस्थिति से ही अपने को हटा लिया। कलह होती ही रहती, तो एक दिन आदमी कलह से भी ऊब जाता और ऊपर उठता। इसने कलह से अपने को हटा लिया।
यह सब तरफ से अपने को हटा ले सकता है। लेकिन यह क्रांति नहीं है, रूपांतरण नहीं है। यह आदमी वही है। सिर्फ परिस्थितियां इसने क्षीण कर दीं। इसमें कोई गहन अनुभव उपलब्ध नहीं होने वाला है।
लाओत्से कहता है कि दूकान है, तो दूकान पर रहो; बाजार है, तो बाजार; और घर है, तो घर । परिस्थितियों से भागो मत। और क्रिया से हटो मत। करते ही रहो क्रिया । और ध्यान रखो कि क्रिया विश्राम के विपरीत नहीं है, बल्कि ठीक से जो क्रिया करे, वह उतने ही ठीक से विश्राम में प्रवेश करता है।
यह लाओत्से के बुनियादी साधना के सूत्रों में से एक है। इसे थोड़ा हम समझ लें।
मैं सोच सकता हूं कि रात मुझे नींद नहीं आती, तो मैं दिन भर भी सोया रहूं, ताकि रात अच्छी नींद आ सके। तो मैं दिन भर लेटा रहूं। यह तर्कयुक्त मालूम पड़ता है कि रात नींद नहीं आती, दिन भर भी लेट कर विश्राम करो। जितना ज्यादा विश्राम का अभ्यास करोगे, रात उतना ही ज्यादा विश्राम आएगा। लेकिन जो दिन भर लेटा रहेगा, रात नींद बिलकुल असंभव हो जाएगी। क्योंकि तर्क एक बात और जीवन बिलकुल दूसरी बात है । और जीवन तर्क को मान कर नहीं चलता। तर्क को जीवन को मान कर चलना हो तो चले, जीवन किसी तर्क को मान कर नहीं चलता है। जीवन की अपनी व्यवस्था है।
और जीवन की व्यवस्था द्वंद्व की व्यवस्था है, डायलेक्टिकल है। जो आदमी दिन में खूब सक्रिय होगा, श्रम करेगा, दौड़ेगा, पत्थर तोड़ेगा, वह आदमी रात गहरी नींद में प्रवेश करेगा। क्योंकि जो जितना सक्रिय होगा, उसकी सक्रियता उतनी ही आयोजना कर देगी भीतर कि वह निष्क्रिय भी हो सके। जो एक छोर को छू लेगा द्वंद्व के, वह दूसरे छोर में अपने आप डोल जाएगा घड़ी के पेंडुलम की तरह। बाएं छू लिया, दाएं चला जाएगा। और जो आदमी रात ठीक से विश्राम कर लेगा और गहरी निद्रा में उतरेगा, तो आप यह मत समझना कि दूसरे दिन वह फिर दिन भर सोया रहेगा। जितनी गहरी नींद होगी, उतनी ही ताजगी से भरा हुआ सुबह वह उठेगा। और जितना गहरा विश्राम लिया होगा, उतने ही श्रम की क्षमता पुनः उपलब्ध हो जाएगी। इसे हम दो-चार तरफ से समझें, तो खयाल में आए।
एक आदमी सोचता है कि अगर मुझे मौन होना है, तो मुझे बिलकुल बोलना बंद कर देना चाहिए। जो आदमी ऐसा सोचता है, वह जीवन के द्वंद्व को नहीं जानता। अगर वह बिलकुल बोलना बंद कर देगा, तो वह चौबीस घंटे भीतर बोलता रहेगा। वह कभी मौन को उपलब्ध होने वाला नहीं है। मौन को तो वही उपलब्ध हो सकता है, जो जब बोलता हो तो इतनी प्रामाणिकता से बोलता हो कि सारे प्राण उसमें समाविष्ट हो जाएं, कुछ बचे न भीतर, सारी आत्मा बोलने लगे। वह आदमी जब बोलना बंद करेगा, परिपूर्ण मौन में प्रवेश कर जाएगा। जीवन द्वंद्व का नियम है। अगर आप पूरी आथेंटिसिटी से पूरी प्रामाणिकता से बोल सकते हैं, अपने सारे प्राणों को बोलने में उंडेल दे सकते तो आप तत्क्षण, बोलना बंद होगा कि विश्राम में, मौन में प्रवेश कर जाएंगे।
लेकिन हम सोचते हैं कि अगर मौन चाहिए, तो बोलना बिलकुल बंद कर दो। अगर रात में नींद चाहिए, तो दिन में श्रम बिलकुल बंद कर दो। अगर शांति चाहिए, तो अशांति के सब स्थानों से हट जाओ ।
नहीं; शांति चाहिए, जो अशांति के स्थान में पूरी तरह मौजूद हो जाओ, पूरे उपस्थित हो जाओ। भागने की कोई जरूरत नहीं है। जितनी पूर्ण उपस्थिति होगी वहां, उतनी ही शांति की तरफ यात्रा हो जाएगी।