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________________ ताओ उपनिषद भाग २ 234 हू कैन मेनटेन हिज काम फॉर लांग ? वक्तव्य को ठीक से समझना पड़े। बाई एक्टिविटी इट कम्स बैक टु लाइफ रेस्ट । कौन अपनी समता और शांति को सदा बनाए रख सकता है? शांति सभी को मिलती है कभी-कभी । और समता भी सभी को आती है कभी-कभी । सतत कौन बनाए रख सकता है ? तो दो उपाय हैं। एक उपाय तो है कि आदमी बिलकुल मर जाए, मरा हुआ हो जाए। अशांत होने की भी ताकत न रहे। कुछ लोग इसकी कोशिश करते हैं। अगर मन में वासना उठती है, तो भोजन इतना कम कर दो कि शरीर में शक्ति न रहे कि वासना निर्मित हो । न होगी शक्ति, न उठेगी वासना। लेकिन शक्ति का न होना वासना का न होना नहीं है । वासना प्रतीक्षा करेगी। जब भी शक्ति होगी, तब प्रकट हो जाएगी। और अगर प्रकट होने का मौका भी न दिया, तो छुटकारा नहीं है, मौजूद ही रहेगी। बीज की तरह जमी रहेगी। 1 अमरीका में उन्होंने एक प्रयोग किया एक विश्वविद्यालय में । तीस विद्यार्थियों को एक महीने तक भूखा रखा। पांच-सात दिन की भूख के बाद कामवासना क्षीण होने लगी। नग्न तस्वीरें रखी रहें, अश्लील चित्र प्रदर्शित किया जाए, कोई आकर्षण नहीं। नग्न से नग्न चित्र रखे हैं सुंदर से सुंदर स्त्रियों के, कोई उठा कर भी नहीं देखता । पंद्रह दिन के बाद कितनी ही काम की चर्चा करो, कोई रस नहीं लेता। तीस दिन में ऐसा लगा कि वासना बिलकुल तिरोहित हो गई। क्योंकि शक्ति चाहिए, अतिरिक्त शक्ति चाहिए वासना के लिए। तीस दिन के बाद भोजन दिया। पहले दिन के भोजन के बाद ही रस वापस लौटने लगा। तीन दिन के भोजन के बाद वे चित्र फिर सुंदर हो गए, आकर्षक हो गए। फिर चर्चाएं और मजाक और इशारे और कामवासना की दौड़ शुरू हो गई। अगर इनको जीवन भर उस तल पर रखा जाए, जहां कि ऊर्जा ज्यादा पैदा न हो, तो इनको वहम होगा कि इनके भीतर से वासना मर गई । अनेक साधु-संत यही करते रहते हैं। वासना मिटती नहीं, केवल शक्ति की अभिव्यक्ति न होने से छिप जाती है। लाओत्से कहता है, इस भांति अगर कोई अपने को समता में रखना चाहे, तो वह समता नहीं, मृत्यु है। शांति नहीं, मरघट का सन्नाटा है। शांति एक जीवित घटना है, सन्नाटा एक मृत। मरघट पर भी शांति होती है। अगर वैसी ही शांति चाहिए, तो अपने को सिकोड़ना पड़े और नष्ट करना पड़े। उससे कोई आनंद को उपलब्ध नहीं होता। उससे सिर्फ गहरी उदासी में डूब जाता है— इतनी उदासी में जहां जीवन अपने पंख सिकोड़ लेता है और यात्रा बंद कर देता है। अक्सर साधु-संत दिखाई पड़ते हैं - मुर्दा, सूख गए, रस की धार खो गई। बस इतना ही जीवन बचा है कि चल लेते हैं, फिर लेते हैं। फिर हमें लगता है कि बड़ी ऊंची स्थिति पा ली। यह स्थिति भ्रांत है। जरूर एक ऊंची स्थिति है; लेकिन वह मृतवत नहीं, और भी जीवंत है। उसका राज क्या है ? लाओत्से कहता है, उसका राज यह है । सक्रियता तो आएगी जीवन में, सक्रियता जरूरी है। जीवन का अर्थ सक्रियता है। लेकिन जो व्यक्ति इस राज को समझ लेता है कि सक्रियता भी विश्राम का द्वार है, बल्कि सक्रियता ही विश्राम की जन्मदात्री है। और जो यह समझ लेता है कि सक्रियता विश्राम के विपरीत नहीं, विश्रांति का मार्ग है, वह सदा समता को उपलब्ध हो जाता है। इसे हम ऐसा समझें। अगर मैं दूकान पर बैठता हूं, तो क्रोध आ जाता है, लोभ आ जाता है। तो दो रास्ते हैं। दूकान छोड़ दूं। तो न होगी दूकान, न होगा क्रोध, न लोभ । पत्नी के साथ रहता हूं, तो कलह हो जाती है, ईर्ष्या आ जाती है । छोड़ दूं पत्नी को न होगी ईर्ष्या, न कलह । ऐसे हटता जाऊं सब जगह से। जहां-जहां मुझे लगता हो कि गड़बड़ हो जाती है, वहां से हट जाऊं। लेकिन मैं तो मैं ही रहूंगा। चाहे दूकान से हदूं, हिमालय चला जाऊं; चाहे पत्नी को छोडूं, आश्रम में बैठ जाऊं, मैं तो मैं ही रहूंगा।
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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