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विश्रांति से समता व मध्य मार्ग से मुक्ति
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एक फ्रेंच चित्रकार खजुराहो देखने आया था । उन दिनों मेरे एक परिचित मित्र विंध्य प्रदेश में मंत्री थे। उन मित्र को जिम्मा मिला कि वे उस चित्रकार को जाकर खजुराहो की मूर्तियां दिखा दें। वे दिखाने गए। वे बहुत घबड़ाए हुए थे; धार्मिक आदमी हैं। धार्मिक आदमी से मतलब रोज सुबह पूजा करते हैं, जनेऊ पहनते हैं, गीता - रामायण पढ़ते हैं, मंदिर जाते हैं, तिलक टीका लगाते हैं। सब तरह से धार्मिक हैं। वे बड़े घबड़ाए कि अब ये खजुराहो की नग्न मूर्तियां, यौन भित्ति चित्र संभोग और मैथुन के, बड़ी मुसीबत हुई। और यह परदेशी क्या सोचेगा कि ये भारतीय कैसे गंदे हैं ! ये भी कोई चित्र बनाने का है और वह भी मंदिर के चारों तरफ ? मगर मजबूरी थी, दिखाना जरूरी था । आदमी प्रतिष्ठित था और उसे मिनिस्टर से कम हैसियत का आदमी दिखाने ले जाए, यह उचित भी न था । राम राम करके वे उसके साथ गए।
मुझे कहते थे कि मैं वक्त मन में यही कहता रहा कि हे भगवान, यह यह न पूछे कि ये अश्लील, ये नग्न चित्र किसलिए बनाए हैं? किसी तरह जल्दी उन्होंने घुमाने की कोशिश की। और वह चित्रकार एक-एक मूर्ति के पास घंटों ठहरा। और वे परेशान हों कि अब चलिए भी। और वे नीचे नजर रखें कि कहीं दिखाई न पड़ जाएं। पूरी यात्रा किसी तरह समाप्त हो गई। उस चित्रकार ने पूछा नहीं। सीढ़ियों पर उनसे ही नहीं रहा गया लौटते वक्त, मिनिस्टर से न रहा गया, उन्होंने कहा कि एक बात आपसे निवेदन कर दूं कि यह मंदिर कोई हमारी भारतीय परंपरा का केंद्रीय हिस्सा नहीं है। इससे आप हमारी संस्कृति के संबंध में कुछ मत सोच लेना । यह किसी विक्षिप्त मस्तिष्क, खराब बुंदेला सम्राट की करतूत है। यह कोई भारतीय संस्कृति का इससे कुछ लेना-देना नहीं है। अश्लील हैं चित्र, हम जानते हैं। और हमारा वश चले तो इन मंदिरों पर मिट्टी पुतवा दें।
उस चित्रकार ने क्या कहा ? उस चित्रकार ने कहा, मुझे फिर से भीतर जाना पड़ेगा; क्योंकि अश्लीलता मुझे कहीं दिखाई नहीं पड़ी। मुझे भीतर ले चलें ! मुझे भीतर ले चलें, मुझे दुबारा देखना पड़ेगा; क्योंकि अश्लीलता मुझे कहीं दिखाई नहीं पड़ी। मैंने इतने सुंदर और इतने कलात्मक और इतने सहज और इतने निर्दोष चित्र कहीं देखे ही नहीं ।
कौन आदमी धार्मिक है? ये रोज पूजा-प्रार्थना करते हैं। और कैसी धार्मिकता है ? इस आदमी ने शायद पूजा - प्रार्थना कभी न की हो, पर इसे मैं धार्मिक कहूंगा। इसके पास एक कचरे से भरा हुआ मस्तिष्क नहीं है । चीजों को सीधा देख पाता है; बीच में कुछ अपनी धारणाओं को नहीं रखता।
जब आपको कोई मूर्ति अश्लील मालूम पड़ती है, तो भीतर खोजना। आपके भीतर कामवासना जोर मार रही होगी; उसकी वजह से मूर्ति अश्लील मालूम पड़ती है। अगर कोई नग्न आदमी खड़ा हो और आपको लगे कि गंदा है, अश्लील है, तो जरा भीतर झांक कर देखना । नग्न आदमी को देखने की इच्छा, वासना ही भीतर कारण है। अन्यथा कोई सवाल नहीं है। अगर कोई व्यक्ति भीतर की बुराइयों से लड़ेगा, तो इस विक्षिप्तता में उतर जाएगा, परवर्शन में ।
तीन स्थितियां हैं चित्त की। एक को हम कहें भोग भोग नैसर्गिक स्थिति है। जो भोग को दबाएगा और लड़ेगा, वह भोग से भी नीचे गिर जाता है । उसको मैं कहता हूं रोग। और जो भोग को बह जाने देगा, वह भोग से ऊपर उठ जाता है। उसे मैं कहता हूं योग। रोग, भोग, योग। भोग नैसर्गिक है । भोग को जिसने विकृत किया, वह रोग की दुनिया में प्रवेश कर जाता है। भोग को जिसने बह जाने दिया सहजता से, स्वीकार से, संघर्ष के बिना - मिट्टी बैठ जाती है, पत्ते बह जाते हैं, गंदगी हट जाती है। योग उपलब्ध होता है।
इस योग की तरफ इशारा है लाओत्से का ।
'कौन अपनी समता और शांति को सतत बनाए रख सकता है ? जो प्रत्येक सक्रियता के बाद सहज ही घटित होने वाले विश्राम के राज को जान लेता है।'