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खून दूध में परिवार
मंत की पहचान : सजन व अविणीत, अशून्य व लीलामय
अपने खन
यह सिर्फ प्रतीक
आता; उसका खयाल आ रहा है कि फिर तो जाना ही पड़ेगा। महावीर ने कहा, भला किया कि तुमने बता दिया। जाना ही पड़ेगा। अगर मैं न जाऊंगा, तो फिर कौन जाएगा? - तो महावीर उस सर्प को खोजते हुए पहुंचते हैं। मीठी कथा है कि सर्प ने उनके पैर में काट लिया, तो कथा है कि खून नहीं निकला, दूध निकला। दूध निकल सकता नहीं पैर से। लेकिन यह काव्य-प्रतीक है, यह काव्य-प्रतीक है। दूध प्रेम का प्रतीक है, मां का प्रतीक है। सिर्फ मां के पास संभावना है कि खून दूध हो जाए। और मनसविद कहते हैं कि अगर मां प्रेम से बिलकुल क्षीण हो जाए, तो उसके भीतर भी खून दूध में परिवर्तित नहीं होगा। वह परिवर्तन भी इसीलिए संभव है कि उसका अति प्रेम ही उसके अपने खून को अपने प्रेमी के लिए, अपने बच्चे के लिए दूध बनाता है, भोजन बना देता है। यह सिर्फ प्रतीक है कि महावीर के पैर में काटा सांप ने, तो वह दूध हो गया। इस प्रतीक को पूरा तभी समझ सकेंगे, जब समझें कि महावीर ने कहा कि सांप भूखा होगा। और मैं नहीं जाऊंगा, तो कौन जाएगा? यह ठीक मां जैसी पीड़ा है, जैसे बच्चा भूखा हो। इसलिए यह प्रतीक है कि उनके पैर से दूध बहा। दूध तो बहेगा नहीं; लेकिन महावीर के पैर से खून भी बहा हो, तो वह ठीक वैसा ही दूध जैसा बहा जैसे मां का प्रेम बहता हो भूखे बच्चे के प्रति। यह अस्मिता का विसर्जन है, मैं का भाव नहीं है।
बुद्ध को खबर मिली है कि इस रास्ते से मत जाएं। वहां अंगुलीमाल है। वह लोगों को काट देता है। उसने नौ सौ निन्यानबे अंगुलियों की माला बना ली है। एक आदमी को और मारना है। और वह इतना पागल है कि सुनते हैं अगर कोई न मिला, तो आज रात वह अपनी मां के घर पर जाकर मां की हत्या करके उसकी अंगुली की माला पहन लेगा। उसे एक हजार आदमियों की अंगुलियां चाहिए। नौ सौ निन्यानबे परे हो गए। तीन महीने से कोई वहां से निकलता नहीं; क्योंकि वह बिलकुल पागल है। बुद्ध ने यह सुना और वे उस रास्ते पर चल पड़े। साथियों ने, संगियों ने, अनुयायियों ने कहा, आप क्या कर रहे हैं? वहां जाने की कोई जरूरत नहीं है। जो अपनी मां को काटने को तैयार है, वह आपको भी छोड़ेगा नहीं। बुद्ध ने कहा, मां को छोड़ सके, मुझे ले ले; इसीलिए जाता हूं।
यह अस्मिता गल रही है। यह भीतर से अब होने का भी भाव खो रहा है।
मैं तो गया, तब आदमी संत बनता है। और जब हूं भी चला जाए, तब परमात्मा हो जाता है। संत की अस्मिता गलती रहेगी; वह धीरे-धीरे परमात्मा में बिखर कर एक हो रहा है।
___ वे अपने बारे में किसी प्रकार की घोषणा नहीं करते, जैसे कि वह लकड़ी जिसे अभी कोई रूप नहीं दिया गया हो।'
आप एक लकड़ी पर बैठे हैं, वह कुर्सी है। एक लकड़ी तख्त बन गई है। एक लकड़ी दरवाजा बन गई। एक लकड़ी मूर्ति बन गई। इन लकड़ियों ने घोषणा कर दी कि हम क्या हैं-एक लकड़ी मूर्ति है, एक कुर्सी है, एक दरवाजा है। लाओत्से कहता है, संत अपने संबंध में कोई घोषणा नहीं करते। वे उस लकड़ी की भांति हैं, जिसे अभी कोई रूप न दिया गया हो; जो कोई घोषणा न कर सके कि मैं कौन हूं। अभी जंगल से कटी हुई लकड़ी है, ताजी। अभी कुछ बनी नहीं है, अरूप है। बन सकती है कुछ भी; लेकिन बनी कुछ भी नहीं है।
लाओत्से कहता है कि संतजन सदा ही अनबने होते हैं। उनकी कोई घोषणा नहीं कि हम यह हैं।
ध्यान रहे, जैसे ही घोषणा हुई, वैसे ही सीमा आ जाती है। अघोषित असीम होगा। और असीम जो है, उसे अघोषित रहना पड़ेगा। वह घोषणा नहीं कर सकता कि मैं कौन हूं। कोई घोषणा नहीं होती। हम सब घोषणा करते हैं कि कौन हैं। कोई कहता है, मैं मजिस्ट्रेट हूं; कोई कहता है, मैं डाक्टर हूं; कोई कहता है, मैं नेता हूं; कोई कहता है, मैं यह हूं, वह हूं। हम सब घोषणाएं करते हैं। संत से पूछो कि तुम कौन हो, तो उसकी कोई घोषणा नहीं हो सकती कि मैं कौन हूं।
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