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ताओ उपनिषद भाग २
___यह बड़ी तीखी बात है। और सीता इसे तभी कह सकती है, जब यह अभिनय का हिस्सा हो। अन्यथा इसका कोई अर्थ नहीं है। मगर लक्ष्मण बेचारा फंस जाता है। उसे क्रोध आ जाता है कि हद हो गई बात की। मैं इसलिए नहीं जा रहा हूं कि राम मुझे कह गए हैं कि पहरा देना और सीता यह कह रही है कि मैं जानती हूं पहले से कि तुम्हारी नजर मुझ पर है। तो राम भूल गए लक्ष्मण के खयाल से, सीता भूल गई। क्रोध भयंकर हो गया। अहंकार को भारी चोट लग गई। लक्ष्मण सीता को छोड़ कर चला जाता है।
यह एक बड़े अभिनय का हिस्सा है। सीता के मुंह से ये वचन बहुत लोगों को बहुत कष्टपूर्ण हुए हैं। बहुत कष्टपूर्ण हुए हैं। लेकिन उन्हीं को होंगे, जो इस लीला की पूरी व्यवस्था को न समझें, जो इसे बहुत वास्तविक समझ लें। उन्हें सीता के शब्द अभद्र मालूम होंगे और व्यवहार कठोर मालूम होगा। और यह बात ओछी मालूम होगी। लेकिन यह अभिनय, मात्र अभिनय का हिस्सा है।
लेकिन लक्ष्मण को यह स्थिति नहीं है। लक्ष्मण को यह स्थिति नहीं है। लक्ष्मण के लिए सभी कुछ वास्तविक है। इस पूरे खेल में राम को हमने प्रमुख माना और रामलीला नाम दिया, उसका कारण है। ऐसे कोई चाहे तो भरत को भी प्रमुख मान सकता था। और कोई कमी न होती; वह नायक कुछ कम नहीं है राम से। रावण को भी प्रमुख माना जा सकता था; क्योंकि उसके बिना भी यह घटना नहीं घट सकती। और सीता तो केंद्रीय है ही; क्योंकि सारा जाल उसके आस-पास फैलता और बड़ा होता है। लेकिन हमने सब का नाम छोड़ कर राम को नायक माना। क्योंकि उस परे खेल में खेल ही जानने वाले वे अकेले ही व्यक्ति गहरे हैं। उनको यह सारे का सारा खेल है, यह सारी लीला है।
'उनकी अस्मिता सतत विसर्जित होती रहती है, जैसे कि प्रतिपल बिखरता हुआ बर्फ हो।'
जैसे बर्फ पिघल रहा हो धूप में, ऐसे संत की अस्मिता, आत्मा, होने का भाव कि मैं हूं, वह पिघलता चला जाता है। यह थोड़ा सोचने जैसा है। यही फर्क गहरा है। संत तब तक संत कहा जाएगा, जब तक उसकी अस्मिता का कुछ हिस्सा अभी और भी पिघलने को शेष रह गया है। जिस दिन अस्मिता बिलकुल पिघल जाएगी, उस दिन संत संत भी नहीं रह जाएगा। उस दिन वह परमात्मा ही हो गया। अस्मिता, आत्मा का भाव...।
अब इसे हम दो तरह से ले लें। हमारे भीतर अहंकार है-मैं हूं। यह बिलकुल झूठा मैं है। यह पिघल जाए, तो संतत्व पैदा होगा। संतत्व में मैं पर तो जोर नहीं रहेगा, हूं पर जोर रहेगा। मैं हूं, आई एम। हमारा जोर मैं पर है। हूं सिर्फ एक पंछ है, छाया है। संत का मैं गिर जाएगा, तभी वह संत होगा। लेकिन हूं रह जाएगा-हूं, अस्मिता।
अहंकार-मैं, ईगो। एमनेस, अस्मिता—सिर्फ होने का भाव। लेकिन यह भी उसका पिघलता चला जाएगा बर्फ की तरह। और जिस दिन यह भी पिघल जाएगा, जिस दिन मैं भी नहीं बचेगा, हूं भी नहीं बचेगी, उस दिन, उस दिन संत भी गया। उस दिन सिर्फ ईश्वर रहा, अस्तित्व रहा।
तो लाओत्से कहता है कि उनकी अस्मिता पिघलती रहती है प्रतिपल, प्रतिपल, जैसे बर्फ पिघल रही हो। यह भी भीतरी घटना है, यह भी भीतरी घटना है। अगर हम बुद्ध, महावीर, या कृष्ण या क्राइस्ट को निकट से देखें, तो कहीं भी होने पर पकड़ नहीं मालूम पड़ेगी।
महावीर गुजर रहे हैं एक रास्ते से। लोग कहते हैं, वहां से मत जाएं, वहां एक भयंकर सर्प है। वहां से कोई जाता नहीं। राह निर्जन हो गई है। सर्प बहुत भयंकर है और हमले करता है। दूर से फुफकार मार देता है, तो आदमी मर जाता है। तो महावीर कहते हैं, जब वहां से कोई भी नहीं जाता, तो सर्प के भोजन का क्या होगा?
अगर आपसे किसी ने कहा होता कि उस रास्ते पर सर्प है, सर्प को छोड़ें, चूहा है, उधर से मत जाएं, चूहा बड़ा खतरनाक है, तो आपको जो पहला खयाल आता वह अपना आता कि जाना कि नहीं। महावीर को पहला खयाल सर्प का आया कि भूखा तो नहीं होगा। यह अस्मिता गल गई, गली जा रही है। यहां मैं का खयाल ही नहीं
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