________________
संत की पहचान : सजग व अविणीत, अशग्य व लीलामय
मोग्गलायन ने कहा कि मरघट पर तो बहुत डर लगता है। मैं तो आपके पास ही ठीक हूं।
हम संतों के पास भी जाते हैं, तो सुरक्षा के लिए। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे में जाते हैं-सुरक्षा के लिए। इंतजाम कर रहे हैं हम। और आगे तक का इंतजाम कर रहे हैं। कहीं कोई खतरा न हो, सब तरफ व्यवस्था बिठा ले रहे हैं। लोग आते हैं, वे पूछते हैं, आत्मा तो निश्चित ही अमर है! निश्चित ही! अनिश्चय उनके भीतर साफ है। डरते हैं वे भी कहने में कि आत्मा अमर है।
एक महिला मेरे पास आई थी। वह कुछ अनुसंधान करती है आत्मा की अमरता के संबंध में, पुनर्जन्म के संबंध में। पर मैं थोड़ा हैरान हुआ क्योंकि वह पुनर्जन्म और आत्मा की अमरता के सिद्धांतों की बात करती है, लेकिन बहुत भयभीत है। हाथ-पैर उसके कंपते हैं। जब वह आत्मा की अमरता की बात भी करती है, तब भी हाथ कंपता रहता है। वह मेरे पास आई थी, तो मैंने उससे कहा कि हाथ तू ऊंचा कर और फिर तू बात कर, ताकि मैं तेरे हाथ को देखता रहूं। उसने कहा, क्या मतलब?
एक कागज पड़ा था, मैंने उसे कागज दे दिया कि यह कागज तू हाथ में पकड़ ले, ताकि तेरे हाथ का कंपन मुझे कागज में साफ दिखाई पड़े। फिर तुझे जो बात करनी है, कर। उसने कहा, हाथ तो मेरे कंपते हैं और पसीना भी बहुत आता है, नर्वसनेस मुझे बहुत है। लेकिन आत्मा अमर है! शरीर ही मरता है; आत्मा कभी नहीं मरती।
मैंने कहा, तुझे अनुसंधान की यह प्रेरणा कैसे मिली? तूने कुछ अध्ययन किया, कुछ ध्यान किया, आत्मा की तुझे कोई झलक मिली? उसने कहा कि नहीं, बचपन में ही मेरी मां मर गई। फिर मेरे पिता मर गए। और मृत्यु मेरे ऊपर भारी हो गई। नहीं, लेकिन मृत्यु तो सब शरीर की है। आत्मा तो अमर है।
भय मृत्यु का है, आत्मा की अमरता की पकड़ है यह भय से सुरक्षा के लिए कोई भरोसा दिला दे! तो अब वह अनुसंधान में लगी है; इसलिए नहीं कि आत्मा अमर है, इससे किसी को कुछ लाभ होगा; अगर सिद्ध हो जाए, तो वह जो मृत्यु का भय पीछा कर रहा है, वह छूट जाए।
बुद्ध ने मोग्गलायन से कहा कि पहले तू मौत को अनुभव कर, तभी तु चौकन्ना हो सके! और चौकन्ना हो सके, तो ध्यान में जा सके; नहीं तो ध्यान में कभी नहीं जा सकेगा।
ध्यान का अर्थ ही है : एक चौकन्नापन, एक ताजगी, सतत जागरूकता। एक क्षण को भी भीतर मूर्छा नहीं। जैसे चारों तरफ व्यक्ति खतरों से घिरा हो, ऐसे वे चौकने और अनिर्णीत थे। 'वे जीवन में जैसे कि अतिथि हों, ऐसे गंभीर अभिनय में रत थे।'
अतिथि आपके घर आता है, मेहमान आपके घर आता है। आप मेजबान होते हैं, आतिथेय होते हैं, होस्ट होते हैं। अतिथि घर में आता है, नया हो, तो गंभीर अभिनय उसे करना पड़ता है। जैसे-जैसे पुराना होने लगता है, वैसे-वैसे गंभीर अभिनय छोड़ने लगता है। आतिथेय भी नया होता है, तो पहले गंभीर अभिनय करता है। कुर्सियां पड़ोस की उठा लाता है। घड़ी दीवार पर टांग देता है किसी की मांग कर, रेडियो लाकर रख देता है। टेलीफोन, जिसमें कोई कनेक्शन नहीं, उसे जमा देता है। फिर मेहमान परिचित होने लगता है, तो ये सामान धीरे-धीरे हटा दिए जाते हैं। और जब मेहमान बहुत परिचित हो जाता है, तो मेहमान को हटाने की कोशिश शुरू हो जाती है।
अपरिचय में एक अभिनय है। तो अपरिचित आदमी से जब हम मिलते हैं, तो हम नहीं मिलते सिर्फ हमारे बनावटी चेहरे मिलते हैं। इससे बड़ी भ्रांति होती है। अगर दो व्यक्ति मित्र बन जाते हैं, तो पहली दफा जो मुलाकात होती है, वह उन दोनों की नहीं होती, वह दो झूठे चेहरों की होती है। दो-चार घंटे में वे चेहरे कब तक चल सकते हैं-वे सरक जाते हैं, असली चेहरा बाहर आ जाता है। और तब हमें ऐसा लगता है बड़ा धोखा हुआ, क्या समझा था इस आदमी को और क्या निकला!
215