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________________ ताओ उपनिषद भाग २ 210 आचरण को अगर हमने मूल्यवान समझा और प्राथमिक समझा, तो हम एक संत के साथ तो न्याय कर पाएंगे, जगत के सभी संतों के साथ अन्याय हो जाएगा। और यह रोज हो रहा है। जब तक हम अंतस को मूल्यवान न मानें, तब तक हम जगत के विभिन्न विभिन्न रूपों में प्रकट हुए संतों को समझ नहीं पा सकते हैं। इसलिए सारे गुण लाओत्से ने भीतरी कहे हैं। 'वे अत्यंत सतर्क व सजग हैं, जैसे सर्दी की ऋतु में किसी नाले को पार करते समय कोई हो ।' भीतर जागा हुआ दीया हो - सतर्क, सजग । 'वे सतत अनिर्णीत और चौकन्ने हैं, जैसे कोई व्यक्ति जो कि सब ओर से खतरों से घिरा हो ।' यह बड़ा कीमती सूत्र है । 'वे सतत अनिर्णीत व चौकन्ने हैं, इररिजोल्यूट, लाइक वन फीलिंग डेंजर आल एराउंड।' आमतौर से हम समझेंगे कि संत तो रिजोल्यूट होगा, सुनिश्चित होगा। हमारी सभी की धारणा कहेगी कि संत तो दृढ़ निश्चय वाला होगा । लाओत्से कहता है- इररिजोल्यूट, अनिश्चितमना । बड़ी उलटी बात कहता है। इसे थोड़ा समझना कठिन पड़ेगा। कठिन इसलिए पड़ेगा कि हमें जीवन की गहरी समझ नहीं है। समझें इसे । एक आदमी कहता है कि मैंने दृढ़ निश्चय किया है कि अब मैं झूठ नहीं बोलूंगा । यह दृढ़ निश्चय वह किसके खिलाफ करता है? अपने ही खिलाफ और दृढ़ता की इतनी जरूरत क्यों है ? क्योंकि उसको पक्का पता है कि भीतर झूठ बोलने वाला इससे भी ज्यादा दृढ़ है। अगर उसके खिलाफ हमने दृढ़ता न रखी, तो झूठ हमसे बोला ही जाएगा। तो वह कहता है, मैं दृढ़ निश्चय कर लिया हूं। और जितना दृढ़ निश्चय करता है, उतनी जल्दी टूट जाता है। जितना टूटता है, फिर उतना ज्यादा दृढ़ निश्चय करता है। लेकिन दृढ़ता किसके खिलाफ ? जिसके भीतर विपरीत स्वर न रहा हो, उसके भीतर निश्चय जैसी कोई बात न रह जाएगी। निश्चय करते हैं हम अपने ही भीतर छिपे हुए विपरीत के प्रति । मैं करता हूं निश्चय कि क्रोध नहीं करूंगा; क्योंकि मैं जानता हूं कि मेरे भीतर क्रोध करने वाला छिपा है। मैं तय करता हूं कि कामवासना में नहीं उतरूंगा; क्योंकि कामवासना मेरे भीतर छिपी बैठी है। मैं कसम खाता हूं ब्रह्मचर्य की; क्योंकि मुझे मालूम है, भीतर ब्रह्मचर्य को छोड़ कर और सब कुछ है। मेरे भीतर विपरीत स्वर हैं। इसलिए विपरीत को दबाने के लिए मुझे बड़ी दृढ़ता से निश्चय करने पड़ते हैं, रिजोल्यूट होना पड़ता है, संकल्पवान होना पड़ता है। दबा-दबा कर मैं अपने को किसी तरह चलाता हूं। लेकिन जिनके भीतर विपरीत न रहा हो, वे किसके प्रति निश्चय करेंगे? वे निश्चय-शून्य होंगे। इसका मतलब आप यह मत समझ लेना कि वे डगमगाने वाले होंगे। इसका मतलब आप यह भी मत समझ लेना कि उन्हें साफ नहीं है, इसलिए अनिश्चित हैं। उन्हें इतना साफ है कि निश्चित होने की कोई जरूरत नहीं है। महावीर सुबह उठ कर कसम नहीं लेते कि आज मैं अहिंसा का व्यवहार करूंगा । अहिंसा इतनी सहज है कि इस निश्चय की कोई भी जरूरत नहीं है। अहिंसा होगी ही। महावीर को कोई नींद से उठा ले, तो भी अहिंसा होगी। इसके लिए किसी निश्चय की कोई भी जरूरत नहीं है। बुद्ध कोई निश्चित नहीं करते कि तुम यह पूछोगे, तो मैं यही उत्तर दूंगा। यह तो सिर्फ वे ही लोग निश्चित करते हैं, जिनके पास उत्तर देने की क्षमता नहीं है। तो पहले से तय करना पड़ता है। उत्तर तय होना चाहिए, साफ होना चाहिए। कोई पूछेगा ऐसा, तो ऐसा मैं कहूंगा। लेकिन जिनकी चेतना सजग है, उनके पास कोई निश्चय नहीं होता। पूछा जाता है कुछ उत्तर आता है। उत्तर आता है, इसके लिए पूर्व - निश्चय नहीं होता। इसके लिए पूर्व-निश्चित होने की कोई जरूरत नहीं होती। बर्नार्ड शॉ से किसी ने पूछा है। बर्नार्ड शॉ बोलने जा रहा है किसी सभा में; और कोई पूछता है कि क्या बोलिएगा, कुछ तय कर रखा है ?
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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