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संत की पहचान : सजग व अविणीत, अरुंशय व लीलामय
मोक्ष है। अपने ही लिए सब कुछ है। क्राइस्ट की बात ही और है। अपने जीवन की आहुति दे दी सबके लिए। सब सुखी हो सकें, इसलिए अपने को सूली पर लटकवा दिया। इसलिए जीसस को मानने वाले को महावीर और बुद्ध बहुत पीछे मालूम पड़ते हैं। किसकी सेवा की? किसी की कोई सेवा नहीं की। अपनी ही सेवा की होगी, तो की। अपने ही लिए सब कुछ किया। तो यह तो बहुत गहन स्वार्थ है। और जो अभी अपने स्वार्थ से मुक्त नहीं हुए, वे अहंकार से कैसे मुक्त होंगे? इसलिए जीसस को मानने वाला जानता है कि अहंकार से तो वही मुक्त होगा, जिसने अपने स्वार्थ को छोड़ा और सबके स्वार्थों के लिए बलि दे दी।
लेकिन अगर महावीर के भक्त को पूछे, तो वह कहेगा कि सूली तो कर्मों के फल से लगती है। जरूर पिछले जन्म में कुछ पाप किया होगा। महावीर के पैर में कांटा तो चुभ जाए! सूली तो बात और। तो जैन मानते हैं कि महावीर जब रास्ते पर चलते हैं, तो सीधा कांटा भी पड़ा हो, तो तत्काल उलटा हो जाता है। क्योंकि महावीर जहां से गुजरते हों, पुण्यधर्मा, उनको एक कांटे का दुख भी तो यह जगत क्यों देगा? उन्होंने किसी को कभी कोई दुख नहीं दिया।
ये हमारे आचरण के ढांचे हैं। फिर इसमें कठिनाई शुरू हो जाती है। और सबके पास आचरण का ढांचा है; क्योंकि सब एक संत के आस-पास अपनी पूरी रूप-रेखा निर्मित कर लेते हैं। फिर उस रूप-रेखा को लेकर चलते हैं। वह किसी पर लागू नहीं होगा कभी। किसी पर कभी लागू नहीं होगा। दूसरा संत खोजना मुश्किल है, जो उससे तालमेल खा जाए। फिर हम दीन-दरिद्र हो जाते हैं। फिर सबके अपने चुनाव हो जाते हैं, और शेष सब वर्जित हो जाता है।
लाओत्से इसलिए ऊपरी गुणों की चर्चा नहीं करता। लाओत्से कहता है भीतरी बात। अगर महावीर नग्न हैं और अगर बद्ध वस्त्र पहने हुए हैं, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। महावीर अपनी नग्नता में जितने सजग हैं, बद्ध अपने वस्त्र पहने हुए उतने ही सजग हैं। और अगर महावीर अपने ध्यान में लीन हैं और जीसस समस्त के ध्यान में, तो महावीर अपने ध्यान में जितने सजग हैं, जीसस सब के ध्यान में उतने ही सजग हैं। वह सजगता का आंतरिक गुण ही मूल्यवान है। अगर वह आंतरिक गुण नहीं है, तो स्वार्थ भी और परार्थ भी, दोनों अंधे हैं। और अगर वह आंतरिक गुण मौजूद है सजगता का, तो स्वार्थ भी और परार्थ भी, दोनों एक से पुण्यवान हैं। अगर मैं अंधा होकर दूसरे की सेवा में लगा हूं, तो यह अंधापन उतना ही बुरा है, जितना अंधा होकर अपने स्वार्थ में लगा हूं। स्वार्थ बुरा नहीं है; परार्थ भला नहीं हैं। अंधापन बुरा है; सजगता भली है।
इसे थोड़ा ठीक से समझ लें, क्योंकि इस पर बहुत कुछ निर्भर करता है। हमारे सोचने की, जीने की, अनुप्रेरित होने की सारी प्रक्रियाएं इस पर निर्भर करती हैं। अंतस मूल्यवान है, आचरण नहीं। और आचरण अंतस की छाया है।
और छाया अलग-अलग होगी, क्योंकि व्यक्तित्व अलग-अलग हैं। मीरा नाचेगी; बुद्ध नाच नहीं सकते। महावीर के साथ नाचना जोडिए; बहुत बेहूदा लगेगा। लेकिन महावीर मौन खड़े होकर जितने सजग हैं, मीरा नाचते क्षण उनसे जरा भी कम सजग नहीं है।
अगर नाचने पर जिद्द रखिएगा, तो मीरा का भक्त कहेगा, महावीर भी क्या रूखे-सूखे खड़े हैं, लूंठ वृक्ष की भांति! एक हरा पत्ता नहीं उनके जीवन में! कोई पक्षी गीत नहीं गाता, कोई फूल नहीं खिलते, कोई सुगंध नहीं! मृतवत खड़े हैं। कहां मीरा, कहां उसकी पायल की झंकार, कहां उसका गीत, कहां उसकी वीणा! यहां जीवन अपनी पूरी प्रफुल्लता में प्रकट हुआ है। तो महावीर रूखे-सूखे लगेंगे।
लेकिन अगर महावीर को मानने वाला है, तो वह मीरा को कहेगा कि यह तो सब राग है, आसक्ति है। यह कृष्ण की हाय-हाय, यह तो दुखी चित्त का लक्षण है। यह कृष्ण की पिपासा, यह मांग, यह तो डिजायर है, इच्छा है, वासना है। यह मीरा का कहना कि कब आओगे मेरी सेज पर सोने, यह सब क्या है? यह तो वासना का ही वेग है, दमित वेग है। यहां-वहां से फूट कर बह रहा है। यह प्रार्थना बन रही है वासना।
लगाता, कोई फूल नहीं खिलबह, लूंठ वृक्ष की
उसकी पायल की झंकार
प्रफुल्लता में प्रकल
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