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ताओ उपनिषद भाग २
इसे हम ऐसा समझें। एक मिलिटरी की पंक्तिबद्ध कतार खड़ी है। उनका आचरण बिलकुल एक जैसा होगा। बाएं घूमो; तो लाख लोग बाएं घूम जाएंगे। दाएं घूमो; तो लाख लोग दाएं घूम जाएंगे। उनका आचरण हम बाहर से व्यवस्थित कर सकते हैं, यूनिफार्म कर सकते हैं। और मजे की बात है कि सैनिक के शिक्षण में हमें उसके आचरण को इतना यूनिफार्म करना पड़ता है कि उसका व्यक्तित्व बिलकुल मिट जाए। और जिस मात्रा में आचरण यूनिफार्म हो जाता है, उसी अर्थ में बुद्धि क्षीण हो जाती है। होगी ही।
सैनिक के पास बुद्धि की जरूरत भी नहीं है। अगर हो, तो दुनिया में युद्ध नहीं हो सकते। इसलिए कोई नहीं चाहता कि सैनिक के पास बुद्धि हो। सैनिक जितना निर्बुद्धि हो, उतना कुशल होगा, उतना आज्ञाकारी होगा, उतना समान आचरण-धर्मा होगा।
एक तरफ सैनिकों की, लाख सैनिकों की पंक्ति है, जो एक व्यक्ति की तरह व्यवहार करेगी। दो संतों को भी एक साथ रखें, तो एक सा व्यवहार नहीं होगा। बुद्ध और महावीर को एक साथ बिठा दें, एक सा व्यवहार जरा भी नहीं होगा। लेकिन भीतर सजगता बिलकुल एक सी होगी।
संत निर्णीत होते हैं सजगता से, साधारणजन निर्णीत होते हैं आचरण से।
चूंकि हम सब आचरण से निर्णीत होते हैं, हम संतों को भी आचरण से ही सोचते हैं। इसलिए समझ मुश्किल हो जाती है। यह दुनिया में जो इतना विवाद है संतों के संबंध में, उसका कुल कारण इतना है। महावीर को जिन्होंने संत मान लिया, वे बुद्ध को कैसे संत माने? उनके आचरण भिन्न हैं। जिन्होंने बुद्ध को संत मान लिया, वे कृष्ण को कैसे संत माने? उनके आचरण भिन्न हैं। जिन्होंने कृष्ण को संत मान लिया, उन्हें क्राइस्ट कैसे संत मालूम पड़ेंगे? उनके आचरण भिन्न हैं। महावीर और मोहम्मद को कैसे साथ रखिएगा? कोई उपाय नहीं है। और आचरण को ही हम देख पाते हैं, इसलिए हमारी तकलीफ है।।
फिर हम सब के आचरण पर भी बंधी हुई धारणाएं हैं। अगर मैं जैन घर में पैदा हुआ, तो महावीर का आचरण मेरे चित्त पर भारी हो जाएगा। फिर मैं सारे जगत में घूमूंगा उसी आचरण के नक्शे को लेकर। जीसस उसमें नहीं बैठेंगे, तो मैं समझंगा, जीसस ज्ञानी नहीं हैं। जैन नहीं मानते कि बुद्ध को परम ज्ञान हुआ। क्योंकि परम ज्ञान होता, तो आचरण महावीर जैसा हो जाना चाहिए था।
एक बहुत विचारशील जैन ने एक किताब लिखी। बहुत सदभाव से लिखी और यह सिद्ध करने की कोशिश की कि महावीर और बुद्ध दोनों ही एक ही संदेश दुनिया को देते हैं। लेकिन किताब का नाम रखा : भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध। मैंने उनसे पूछा कि यह इतना फर्क कैसा? तो उन्होंने कहा, और सब तो ठीक है, लेकिन बुद्ध उस स्थिति में नहीं पहुंचे थे। तो ज्यादा से ज्यादा महात्मा; महावीर के साथ भगवान की हैसियत में हम उन्हें नहीं रख सकते। मैंने उनसे पूछा कि यह जान कर आपने रखा? उन्होंने कहा कि नहीं, आपने पूछा तो मुझे खयाल आया; यह अनजाने ही हुआ होगा। यानी साफ मेरे मन में खयाल नहीं था।
एक ढांचा है फिर। बुद्ध कपड़े पहने हुए हैं। महावीर नग्न हैं अगर, तो नग्न महावीर को मानने वाला सोचेगा, बुद्ध का अभी कपड़े से मोह नहीं छुटा-स्वभावतः। और जब कपड़े ही से मोह नहीं छटा, तो फिर और क्या मोह छटा होगा? तो मान सकते हैं कि अच्छे आदमी हैं, महात्मा हैं, संत हैं, लेकिन महावीर के साथ नहीं रख सकते।
क्राइस्ट को कैसे रखिएगा महावीर के, बुद्ध के, कृष्ण के साथ?
क्राइस्ट को मानने वाले की भी पीड़ा यही है। उसका भी आचरण स्पष्ट है। क्राइस्ट को मानने वाला जानता है कि क्राइस्ट की हैसियत का आदमी अपने को कुर्बान कर देता है सबके लिए। महावीर ने किसके लिए अपने को कुर्बान किया? किसी के लिए नहीं। तो महावीर कितने ही अच्छे हों, स्वार्थी हैं। अपने ही लिए ध्यान है, अपने लिए
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