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संत की पहचान : सजग व अविणीत, अठंशज्य व लीलामय
इसलिए पहली संतत्व की परिभाषा में लाओत्से कहता है, वे अत्यंत सतर्क व सजग हैं, जैसे शीत ऋतु में कोई नाले को पार करता हो।
यहां जोर गुण पर है, आचरण पर नहीं। यहां जोर भीतरी बोध पर है, बाहरी व्यवहार पर नहीं। कल्पना में भी सोचें, आप पार कर रहे हैं बर्फीला नाला। हर आदमी अपने ढंग से पार कर सकता है। कोई दौड़ कर करेगा, कोई धीमे करेगा। अपना-अपना ढंग होगा। कोई गीत गाकर करेगा, कोई चुप रह कर करेगा। लेकिन भीतरी एक गुण-सजगता। कौन कैसे करेगा, यह गौण है। सजग रह कर करेगा, बस इतना काफी है।
लाओत्से के समय में एक बहुत प्रसिद्ध फकीर था। फकीर वह था नहीं, सम्राट के घर पशुओं को काटने का बधिक का काम करता था। पूरे तीस वर्ष उसने सम्राट के भोजनगृह के लिए पशुओं को काटा था। बड़ा सम्राट का भोजनगृह था। अनेक पशु रोज कटते थे। लाओत्से ने अनेक बार अपने शिष्यों को कहा कि अगर कभी तुम्हें सजग आदमी देखना हो, तो उस बधिक को जाकर देखना। लोग चौंक जाते थे कि बधिक और सजग!
लाओत्से की मान कर कभी उस बधिक के पास कोई गया। उस बधिक को पशुओं को काटते देखा। एक बात तो सुनिश्चित मालूम पड़ी कि पशुओं को काटने में उसकी कुशलता अनूठी थी। और जो देखने गया था, उसने पूछा उस बधिक को कि तुम इतने पशु काटते हो, यह तुम जिस खंजर से काटते हो, कितने दिन में खराब हो जाता है?
तो उस बधिक ने कहा, मेरे पिता भी इसी से काटते थे, उनके पिता भी इसी से काटते थे, मैं भी इसी से काट रहा हूं। लेकिन हम इतनी सजगता से काटते हैं कि इसकी धार मरती नहीं, रोज नई हो जाती है। हम बेहोशी से नहीं काटते कि हड्डी पर पड़ जाए। हम इतनी सजगता से काटते हैं कि जहां दो हडियां मिलती हैं, उनके बीच से यह शस्त्र गुजर जाता है। और वे दोनों हड्डियां इस पर धार रखने के काम आ जाती हैं।
उस आदमी ने उस बधिक से पूछा कि तुम्हें कभी तकलीफ नहीं होती इनको काटते?
तो उस बधिक ने कहा, जो कट सकता है, वही कटता है। जो नहीं कट सकता, उसके कटने का कोई उपाय नहीं है। मैं जिसे काटता हूं, वह मरा ही हुआ है। और जो जीवंत है, उसको किसी अस्त्र-शस्त्र से काटने का कोई भी उपाय नहीं है।
उसने वही कहा, जो कृष्ण ने गीता में कहा है। लेकिन कृष्ण के शब्द हमारी समझ में आ सकते हैं, एक बधिक के शब्द हमारी समझ में आना मुश्किल हो जाएंगे।
___वह आदमी लौटा और उसने कहा कि बात तो वह बहुत ज्ञान की करता है, लेकिन आचरण ज्ञानी का नहीं मालूम पड़ता। पता नहीं, बात ही करता हो। तो लाओत्से ने कहा कि तू जा एक तलवार लेकर और उस बधिक का हाथ काट दे। वह आदमी गया और उसने तलवार उठाई, तो बधिक ने अपना हाथ उसके सामने कर दिया और कहा कि ठीक जोड़ पर मारना, नहीं तो तलवार की धार खराब हो जाएगी। तुझे कुछ अंदाज भी नहीं है, नया-नया है। तो ठीक जोड़ पर!
उस आदमी की हिम्मत नहीं पड़ी। वह वापस लौट आया। लेकिन यह जो आदमी है, यह पशुओं को काटते वक्त ही सजग हो, ऐसा नहीं, अपने को कटाते वक्त भी उतना ही सजग है।
सजगता पर जोर है लाओत्से का, आचरण पर नहीं। सजगता है अंतस का गुण, भीतर की घटना, होश, बोध। आचरण है बाहर की व्यवस्था। आचरण भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। दो संतों के आचरण भी भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। होंगे ही। सिर्फ दो जड़बुद्धियों के आचरण एक जैसे हो सकते हैं। दो संतों के आचरण भिन्न-भिन्न होंगे ही। लेकिन हजार संतों की भी जागरूकता भिन्न-भिन्न नहीं होगी, एक ही होगी। और हजार मूढ़ भी इकट्ठे हों, तो उनकी जागरूकता एक सी नहीं होगी। उनके आचरण एक जैसे हो सकते हैं।
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