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ताओ उपनिषद भाग २
अगरं हमसे कोई पूछे कि कौन आदमी संत है, तो हम कहेंगेः शराब नहीं पीता, मांस नहीं खाता, रात्रि-भोजन नहीं करता, झोपड़े में रहता है, नग्न रहता है। हम कुछ ऐसी परिभाषा करेंगे, जिसका संतत्व से कोई भी संबंध नहीं है। लाओत्से कहता है: सजगता। और सजगता में वह सब आ गया, जो हम कहते हैं। लेकिन हम जो कहते हैं, उसमें सजगता नहीं आती।
एक आदमी मूर्छित ही मांसाहार कर सकता है, मूछित ही शाकाहार कर सकता है। एक बच्चा मांसाहारी के घर में पैदा होता है, मांसाहार करता रहता है। एक बच्चा शाकाहारी के घर में पैदा होता है, शाकाहार करता रहता है। दोनों मूछित हैं। न तो शाकाहारी सजग है और न मांसाहारी सजग है। इन दोनों बच्चों को हम बचपन में बदल लेते, तो जो मांसाहारी है, वह शाकाहारी हो गया होता; जो शाकाहारी है, वह मांसाहारी हो गया होता। कोई अड़चन न आती, कोई अड़चन न आती। जितने मजे से एक आदमी दूध पी लेता है, उतने ही मजे से दूसरा आदमी दूसरी व्यवस्था में खून पी लेता है। दूध पीने में भी उतनी ही बेहोशी बनी रहती है, जितनी खून पीने में।।
दूध पीने वाला सोचता होगा कि हम बहुत सजगता से पी रहे हैं, तो गलत सोचता है। मांसाहारी सोचता हो कि बहुत सजगता से मांसाहार कर रहा है, तो गलत सोचता है। हमारे जीवन की जो व्यवस्था है, वह बिलकुल मूछित है। हम कुछ भी कर सकते हैं उस मूर्छा में। उस मूर्छा में हमें कुछ भी करने के लिए निष्णात, प्रशिक्षित किया जा सकता है। अगर गैर-मांसाहारी के सामने मांस रख दें, तो उसे उलटी हो जाए। इसलिए नहीं कि उसके पास बहुत बड़ी आत्मा है, बल्कि सिर्फ इसलिए कि उसके पिछले संस्कार मांसाहार के विपरीत हैं। और कुछ भी नहीं है। अभ्यास नहीं है उसका। मूर्छा उसकी उतनी ही है, अभ्यास भिन्न है। ऐसे लोग हैं, जो दूध को भी पीने में मांसाहार ही समझते हैं। तो उनके सामने दूध रखें तो भी वोमिट हो जाएगी। आपको दूध देख कर कभी भी वोमिट नहीं होगी। होगी ही नहीं; दूध तो शुद्ध आहार है। लेकिन ऐसे पंथ हैं, जो मानते हैं कि दूध भी रक्त का ही हिस्सा है। है भी। इसीलिए दूध पीने से इतना रक्त बढ़ जाता है। रक्त में दो तरह के कण हैं : सफेद और लाल। सफेद कण इकट्ठा होकर दूध बन जाते हैं। इसलिए दूध पूर्ण आहार है; क्योंकि पूरा रक्त आपके शरीर को मिल जाता है। जिसको यह खयाल है और जिसका इसके लिए प्रशिक्षण हुआ है, वह दूध को देख कर भी घबड़ा जाएगा। ऐसे लोग हैं, जो अंडे को शाकाहार समझते हैं। क्योंकि वे कहते हैं, जब तक जीवन प्रकट नहीं हुआ, तब तक शाक-सब्जी ही है। उनको अंडे से कोई तकलीफ नहीं होगी। आपकी सजगता पर यह निर्भर नहीं है। आपके आस-पास की व्यवस्था और संस्कार पर निर्भर है कि आपको क्या सिखाया गया है।
इसलिए लाओत्से जैसे व्यक्ति आपकी व्यवस्था पर जोर नहीं देंगे कि आप क्या खाते हैं, क्या पीते हैं, कब सोते हैं, कब उठते हैं। ज्यादा गहरी बात पर उनका जोर है कि आप कुछ भी करते हों, आप जीवन में ऐसे चलते हैं, जैसे शीत ऋतु में सर्द नाले में, बर्फीले नाले में से गुजरता हुआ कोई आदमी सजग चलता है। जो भी आप करते हैं, सजग करते हैं।
और बड़े मजे की बात है, अगर कोई भी व्यक्ति अपने संस्कारों में सजग हो जाए, तो उसका जीवन रूपांतरित हो जाता है। फिर आप क्या खाते हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। खाते वक्त आप सजग होते हैं या नहीं, यह महत्वपूर्ण है।
और जो सजग है, निश्चित ही जो व्यर्थ है, उससे छूट जाएगा। जो सजग है, उससे जो गलत है, वह अपने आप छूट जाएगा। जो सजग है, उसके साथ सही ही बचेगा, गलत के बचने का उपाय नहीं है। सही और गलत की परिभाषा ही यही है कि जो सजग होकर भी बच जाए, वह सही; और जो सजग होते ही गिरने लगे, वह गलत। सजग होकर भी मैं जो कर सकू, वही पुण्य है। और जिसे करने के लिए मुझे मूर्छित होना अनिवार्य हो, वही पाप है। मूर्छा पाप है और सजगता पुण्य है।
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