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ताओ उपनिषद भाग २
हो, तो बहुत बुद्धिमान मालूम पड़ेगा। और ठीक उसी स्थिति में वही आदमी जो करेगा, वह बिलकुल मूढ़तापूर्ण होगा। क्या बात क्या है? दूसरा दूरी पर है। दूरी पर हमारी समझ फोकस हो जाती है। पास, हमारी समझ धुंधली होने लगती है, डगमगाने लगती है। जितने हम पास आते हैं, उतनी कंपित होने लगती हैं आंखें। और बिलकुल पास जब केंद्र पर खड़े होते हैं, तो सब अंधेरा हो जाता है।
एक और तरह की समझ चाहिए, जो स्वयं पर केंद्रित होना जानती हो। धर्म का अर्थ है : स्वयं पर केंद्रित होने की क्षमता। एक गहरी सेंटरिंग, अपने पर खड़े हो जाने की। और अपने को ऐसे देखने की क्षमता, जैसे दूसरे को देख रहे हों। अपने को इतने अनासक्त भाव से देखने की क्षमता, जैसे दूसरे को देख रहे हों। जैसे दूसरे को सलाह देते हों, ऐसे अपने को दूरी से देखने की क्षमता। अपने पार होकर, अपने से भिन्न होकर, अपने से अनासक्तं होकर, अस्पर्शित होकर दर्शक की तरह स्वयं को देखने की क्षमता धर्म के गूढ़ रहस्य में प्रवेश करवाती है।
हम सब समझदार हैं। जहां तक व्यर्थ की चीजों का संबंध हो, हमारी समझ उतनी ही ज्यादा होती है। जितनी हो व्यर्थ बात, हम उतने ज्यादा समझदार होते हैं। जितनी हो सार्थक बात, उतनी हमारी बुद्धि खोने लगती है। कचरा हो, तो हम जैसे जौहरी खोजना मुश्किल है। हीरा हो, तो हम अंधे हो जाते हैं।
इसलिए लाओत्से कहता है कि प्रवेश तो किया बहुत लोगों ने; लेकिन आदमी की समझ के वे परे थे। क्यों थे परे, उसके कुछ कारण भी कहता है। और चूंकि वे परे थे मनुष्य की समझ के, उनके संबंध में बड़ी भ्रांतियां पैदा होती हैं। और जब लाओत्से उनके लक्षण निर्देश करेगा, तब हमें भी समझ में आएगा कि हमारी भी भ्रांतियां कितनी गहन हैं।
___ 'और चूंकि वे मनुष्य के ज्ञान के परे थे, इसलिए उनके संबंध में इस प्रकार कुछ कहने का प्रयास किया जा सकता है।'
ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता। उनके संबंध में ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता। क्योंकि जिस समझ में हम जीते हैं, उसकी तो भाषा है। और जिस समझ में हम कभी जीए नहीं, उसकी कोई भाषा नहीं है। व्यर्थ को प्रकट करना हो, हमारे पास बड़ी कुशल भाषा है।
कभी आपने खयाल किया, अगर आपको क्रोध करना हो और गालियां देनी हों, तो आप इतने मुखर हो जाते हैं जिसका हिसाब नहीं। और अगर प्रेम करना हो और प्रार्थना करनी हो, तो आप एकदम मूक हो जाते हैं। क्रोध की भाषा है हमारे पास; प्रेम की हमारे पास भाषा नहीं है। क्योंकि प्रेम की भाषा तो तभी हो सकती है, जब निकट की समझ हो। क्रोध की भाषा तो आसान है, क्योंकि क्रोध दूर के लिए है, पराए के लिए है, और के लिए है। तो गाली हम दे सकते हैं। और गाली हमारी जितनी अभिव्यक्ति देती है, उतना हमारा प्रेम अभिव्यक्ति नहीं देता।
प्रेमी अक्सर पाते हैं कि बोलने को कुछ भी नहीं है। क्या कहें? कैसे कहें? लेकिन वे ही प्रेमी जब क्रोध से भरेंगे और घृणा से, तो कभी नहीं पाएंगे कि क्या कहें, क्या न कहें। कहने को बहुत होगा।
भाषा हमारे पास नहीं है उस निकट को प्रकट करने की। इसलिए लाओत्से कहता है, इसलिए उनके संबंध में इस प्रकार कुछ कहने का प्रयास किया जा सकता है।'
ठीक-ठीक कहना कठिन है, सिर्फ प्रयास हो सकता है। टटोल सकते हैं अंधेरे में, थोड़े इशारे कर सकते हैं। लेकिन खयाल रखें, कोई भी इशारा बहुत मजबूती से पकड़ने जैसा नहीं है। जगत इतना सूक्ष्म है भीतर का और इतना कोमल है, नाजुक है कि जोर से मुट्ठी बांधी, तो उसके प्राण निकल जाते हैं। रहस्य को पकड़ना हो, तो खुली मुट्ठी चाहिए। बहुत जोर से पकड़ने की चेष्टा नहीं चाहिए।
'वे अत्यंत सतर्क व सजग हैं, जैसे कोई शीत ऋतु में किसी नाले को पार करते समय हो।'
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