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संत की पहचान : सजग व अविणीत, असंशय व लीलामय
और अस्सी साल के बूढ़े में फर्क नहीं होगा। फर्क होगा। लेकिन फर्क समझ का नहीं, संग्रह का होगा। बूढ़े के पास ज्यादा संग्रह होगा, जानकारी ज्यादा होगी। अठारह साल के लड़के के पास जानकारी कम होगी। लेकिन वैज्ञानिक कहते हैं, समझ में कोई फर्क नहीं पड़ता। समझ तो ठहर जाती है अठारह साल पर। अठारह भी आखिरी आंकड़ा है। समझ और भी पहले अधिक लोगों की ठहर जाती है। . पिछले महायुद्ध में अमरीका में उन्होंने जिन सैनिकों की भर्ती की, उनकी समझ का अंक निकालने की कोशिश की, तो बहुत हैरान हुए। लाखों लोगों के बुद्धि-अंक खोजे गए, तो साढ़े तेरह वर्ष औसत उम्र मिली-उम्र मन की। साढ़े तेरह वर्ष औसत उम्र पाई गई। आदमी, साढ़े तेरह वर्ष पर उसकी समझ रुक जाती है। फिर संग्रह बढ़ता चला जाता है। समझ के लिहाज से साढ़े तेरह वर्ष के आदमी में और अस्सी साल के बूढ़े आदमी में फर्क नहीं होता। संग्रह के हिसाब से बहुत फर्क होता है।
विज्ञान में हम आदमी का संग्रह भर बढ़ाए चले जाते हैं। इसलिए हमारी सारी शिक्षा समझ पर निर्भर नहीं करती, संग्रह पर निर्भर करती है। और हमारी सारी शिक्षा बुद्धि को नहीं बढ़ाती, केवल स्मृति को बढ़ाती है। इसलिए हमारी सारी परीक्षाएं स्मृति की परीक्षाएं हैं, बुद्धि की नहीं।
लेकिन धर्म की स्थिति बिलकुल दूसरी है। धर्म आपके संग्रह के बढ़ने से समझ में नहीं आता, आपकी समझ बढ़नी चाहिए। आपकी समझ विकसित होनी चाहिए। आपकी समझ जितनी प्रौढ़ हो, उतना ही ज्यादा धर्म को समझना आसान हो जाएगा।
____ मैंने कहा कि हमारी औसत उम्र साढ़े तेरह वर्ष पर रुक जाती है-बुद्धि की उम्र। लाओत्से के संबंध में बड़ी मीठी कहानी है कि वह बूढ़ा ही पैदा हुआ। यह बहुत प्रतीकात्मक है; क्योंकि लाओत्से के पास बचपन से वैसी समझ थी, जैसी सौ साल के बूढ़े आदमी के पास हो, अगर उसकी समझ बढ़ती चली जाए-संग्रह न हो, समझ बढ़ती चली जाए। संग्रह और समझ ही नालेज और विज़डम का फर्क है। तो ज्ञान तो बुद्धि को बिना बढ़ाए भी बढ़ सकता है, लेकिन बुद्धिमत्ता-विज़डम-बुद्धि को बदले बिना नहीं बढ़ सकती। और धर्म एक ऐसे लोक की बात करता है कि जब तक हमारी बुद्धि का समस्त रूपांतरण न हो, तब तक वह हमारी समझ के बाहर होगा।
लाओत्से कहता है कि उन सूक्ष्मदर्शी, संवेदनशील संतों ने उस परम रहस्य में प्रवेश किया, लेकिन वे इतने गहन थे कि मनुष्य की समझ के परे थे।
आज भी धर्म मनुष्य की समझ के परे है। और धर्म शायद सदा ही मनुष्य की समझ के परे रहेगा। क्योंकि मनुष्य की समझ वस्तुओं को समझने के लिए योग्य, लेकिन अनुभूतियों को समझने के योग्य नहीं है। मनुष्य की समझ दुसरे को समझने में समर्थ, स्वयं को समझने में अभी भी असमर्थ है। दूसरे को समझना बहुत आसान, खुद को समझना बहुत मुश्किल है। क्योंकि हमारे पास वह समझ ही नहीं है जो खुद को समझ ले।
इसे हम ऐसा समझें कि अगर मेरी आंखें खराब हो जाएं और मैं दूर ही देख सकू और पास न देख सकू, तो उसका अर्थ होता है कि आंखें दूरी पर फिक्स हो गईं। अब मुझे पास देखना हो तो चश्मे की जरूरत पड़े। और दूर देखना हो तो चश्मे की कोई भी जरूरत नहीं है। पास देखना मुश्किल, दूर देखना आसान। करीब-करीब मनुष्य की समझ दूर पर फिक्स हो गई है, ठहर गई है। दूसरे को देखना आसान, दूसरे को समझना आसान। जितने दूर की बात हो अपने से, उतने हम बुद्धिमान होते हैं। और जितनी पास आने लगे, उतने ही हम बुद्धिहीन होने लगते हैं। और जब हमारा ही सवाल हो, तो हम बिलकुल ही मूढ़ होते हैं।
इसलिए बहुत मजे की घटना घटती है कि हममें से सभी लोग दूसरों को सलाह देने में जितने कुशल होते हैं, खुद को सलाह देने में उतने कुशल नहीं होते। और अगर किसी आदमी को हम देखें जब वह दूसरे को सलाह दे रहा
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