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ताओ उपनिषद भाग २
उसका अर्थ होगा कि वह गलत है। क्योंकि धर्म के सत्य बासे नहीं होते, उधार नहीं होते, मृत नहीं होते, जूठे नहीं होते। और जब भी कोई व्यक्ति उन्हें जानता है, तो वे ताजे और नए होते हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं होता कि उसके पहले नहीं जाने गए होते। हजारों लोग इसके पहले भी जान चुके होते हैं। सत्य तो वही है।
इसलिए विज्ञान का सत्य आज सत्य है, कल असत्य हो जाएगा। इसीलिए तो नया हो सकता है। इसे हम ऐसा समझें कि असत्य ही नया हो सकता है; सत्य नया नहीं हो सकता। और असत्य को खोज सकते हैं आप दूसरों से भिन्न; क्योंकि असत्य निजी हो सकते हैं, हर आदमी का अपना असत्य हो सकता है। लेकिन हर आदमी का अपना सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो एक ही होगा। और जब भी कोई व्यक्ति अपने हृदय को खोलेगा, तो उस सत्य को उपलब्ध हो जाएगा।
विज्ञान में ऐसा लगता है कि आदमी सत्य का दरवाजा खोलता है। और धर्म में अपने हृदय को सत्य के लिए खोलता है। और हृदय की अंतिम गहराई में जो छिपा है, वह एक ही है। इसलिए कृष्ण भी कहते हैं कि मुझसे पहले भी ऋषियों ने यही कहा। महावीर भी कहते हैं, मुझसे पहले तीर्थंकरों ने यही जाना। क्राइस्ट भी कहते हैं कि मुझसे पहले जो पैगंबर हुए, उन्होंने भी यही कहा। मोहम्मद भी यही कहते हैं। कोई उनमें से दावा नहीं करता कि जो मैं कह . रहा हूं, वह नया है।
लाओत्से भी कहता है कि प्राचीन समय में ताओ में प्रतिष्ठित संतजनों ने अति संवेदनशील अंतर्दृष्टि से जीवन के परम रहस्य में प्रवेश किया। लेकिन लाओत्से ने उनमें से किसी का भी नाम नहीं लिया है। यह भी विचारणीय है।
लाओत्से का खयाल है कि इस जगत में जो लोग जितने गहरे सत्य में प्रविष्ट हुए, इतिहास उनका स्मरण रखने में असमर्थ रहा है। क्योंकि इतिहास केवल उन्हीं लोगों का स्मरण रख सकता है, जो उस समय के आदमियों
की समझ में आए हों। इस जगत में बहुत से ऐसे लोग हुए हैं, जिन्होंने उस परम रहस्य को जाना। लेकिन वह परम रहस्य इतना गूढ़ था कि जब उन्होंने उसे कहा और जीया, तो लोग उसे समझ नहीं सके। इसलिए उन परम रहस्यदर्शियों का नाम भी विस्मृत होता चला गया। बहुतों के वचन हमारे पास हैं, लेकिन नाम खो गए हैं। बहुतों के नाम हमारे पास हैं, तो वचन खो गए हैं। और बहुतों के नाम और वचन, दोनों ही खो गए हैं।
लाओत्से उन संतों की बात कर रहा है, जिनका इतिहास में कोई उल्लेख नहीं है। क्योंकि वे इतने गहन थे कि मनुष्य की समझ के परे थे।
__ मनुष्य की समझ बड़ा छोटा दायरा बनाती है। और मनुष्य की समझ में जो आ पाता है, वह अति क्षुद्र है। जितना विराट हो, जितना महान हो, मनुष्य की समझ के लिए उतनी ही कठिनाई हो जाती है। कई बार तो ऐसा होता है कि जैसे बहुत प्रकाश हो, तो आंखें बंद हो जाती हैं। सूरज के सामने आंखें हों, तो पलक झप जाती हैं। ठीक वैसे ही बहुत बार जिन्होंने परम सत्य को अनुभव किया, उनके सामने हमारी समझ झप जाती है, बंद हो जाती है। हम कुछ भी नहीं समझ पाते हैं। क्या कारण है?
इस संबंध में भी विज्ञान और धर्म के भेद को समझ लेना जरूरी है। अगर विज्ञान को समझना हो, तो आपकी समझ को बढ़ाने की जरूरत नहीं है; सिर्फ आपकी समझ में और जानकारी जोड़ देने की जरूरत है। अगर मैं दस तक गिनती जानता हूं, तो बीस तक गिनती जानने के लिए मेरी समझ को बदलने की कोई भी जरूरत नहीं है। सिर्फ मुझे बीस तक की गिनती से परिचित हो जाना काफी है। मेरी समझ वही रहेगी; मैं बीस तक की गिनती जान लूंगा। हजार तक जान सकता हूं। सिर्फ जोड़ बढ़ता जाएगा। मेरी समझ वही रहेगी; सिर्फ मेरा संग्रह बढ़ता चला जाएगा।
इसलिए मनसविद कहते हैं कि आमतौर से बच्चे की समझ अठारह साल के बाद बढ़ती नहीं। अठारह साल पर समझ तो ठहर जाती है, लेकिन संग्रह बढ़ता चला जाता है। इसका यह मतलब नहीं है कि अठारह साल के बच्चे
2021