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अक्षय व निराकार, सनातन व शून्यता की प्रतिमूर्ति
अगर पूछे किसी प्रेमी से कि तू जिस प्रेम की इतनी बातें करता है, रातों जिसका चिंतन करता है, श्वास-श्वास जिससे तेरी भर गई है, रोएं-रोएं में जिसका तू कंपन अनुभव करता है, उसका प्रमाण कहां है? कहां है वह प्रेम? तो प्रेमी के पास कोई उपाय नहीं है कि वह बता सके कि प्रेम कहां है। और जिन बातों से वह बताने की कोशिश भी करता है, वे कितनी अधूरी हैं! और इसलिए प्रेमी अनुभव करता है कि कितनी असमर्थता है! कैसे प्रकट करे? गले से किसी को लगा लेता है, लेकिन कुछ भी तो प्रकट नहीं होता। हड्डियां हड्डियों को छूती हैं और अलग हो जाती हैं। प्रेमी को भीतर अनुभव होता है : नहीं, प्रकट नहीं हो पाया जो प्रकट करना था। प्रेमी अपनी जान भी दे दे, तो भी कुछ प्रकट नहीं हो पाता। जान ही दी जाती है, और भीतर लगता है कि जो प्रकट करना था, वह तो अप्रकट रह गया। प्रेम है; पर ऐसा है, जैसे न हो। प्रेम के होने का ढंग ठीक वैसा ही है, जैसा परमात्मा के होने का ढंग है।
इसलिए जीसस ने परमात्मा की परिभाषा में ही प्रेम शब्द का प्रयोग किया और कहा कि लव इज़ गॉड।
इसका कारण यह नहीं है कि परमात्मा प्रेमी है। यह भ्रांति हुई। यह भ्रांति हुई और ईसाइयत ने परिभाषा की कि परमात्मा बहुत प्रेमपूर्ण है। नहीं, ईसा का यह मतलब नहीं है। क्योंकि परमात्मा को प्रेमपूर्ण कहने का कोई अर्थ ही नहीं है। क्योंकि जहां कोई घृणा न हो, वहां प्रेमपूर्ण कहने का कोई भी अर्थ नहीं है।
परमात्मा प्रेम है, इसका अर्थ यह है कि इस अस्तित्व में प्रेम ही एकमात्र हमारे पास प्रमाण है, जिसमें होना और न होना एक साथ संयुक्त है। है प्रेम; पूरे वजन से है। और एक आदमी अपने प्रेम के लिए अपने जीवन तक को खोने को तैयार है, तो उस आदमी को प्रेम अपने जीवन से भी ज्यादा वास्तविक मालूम पड़ता है, तभी। लेकिन उस प्रेम को है की परिभाषा में कहीं भी रखने का कोई उपाय नहीं। उसे कहीं भी बताया नहीं जा सकता कि यह है। इसलिए ईश्वर को जीसस ने प्रेम कहा, सिर्फ इसलिए कि आपके अनुभव से एक सूत्र जुड़ सके।
लेकिन हमें तो प्रेम का ही कोई पता नहीं होता। तो फिर बहुत कठिनाई हो जाती है। बहुत कठिनाई हो जाती है। ___ इसलिए जो चिंतन-प्रक्रियाएं प्रेम से जितनी दूर होती हैं, उतनी ही ईश्वर को इनकार करने वाली हो जाती हैं। जैसे गणित, गणित ईश्वर को स्वीकार नहीं कर सकता; क्योंकि प्रेम से बहुत दूर की व्यवस्था हो गई। विज्ञान, विज्ञान ईश्वर को स्वीकार नहीं कर सकता; क्योंकि प्रेम से विज्ञान का क्या लेना-देना?
काव्य ईश्वर को स्वीकार कर सकता है; क्योंकि काव्य प्रेम के निकट है। नृत्य ईश्वर को स्वीकार कर सकता है; क्योंकि नृत्य प्रेम के निकट है। संगीत ईश्वर को स्वीकार कर सकता है; क्योंकि संगीत प्रेम के निकट है।
जो व्यवस्थाएं प्रेम के निकट हैं, वे ईश्वर को स्वीकार करने की तरफ पैर उठा सकती हैं। जो व्यवस्थाएं प्रेम से जितनी दूर हैं, उतनी ही सख्त होती चली जाती हैं और ईश्वर को मानना उन्हें कठिन होता चला जाता है। क्योंकि उनके लिए न होना और होना एक साथ कैसे हो सकते हैं, यह बात ही ग्राह्य नहीं होती।
लाओत्से कहता है, शून्यता ही जैसे उसकी मूर्ति है। नहीं है, यही उसका होना है। 'इन सब कारणों से उसे दुर्गम्य कहा जाता है।' ये सब कारण हैं कि वह समझ में नहीं आता, ऐसा कहा जाता है।
'उससे मिलो, फिर भी उसका चेहरा दिखाई नहीं पड़ता; उसका अनुगमन करो, फिर भी उसकी पीठ दिखाई नहीं पड़ती।'
यह वचन बहुत गहन है : 'उससे मिलो, फिर भी उसका चेहरा दिखाई नहीं पड़ता।'
वह मिल भी जाए, तो भी उसका चेहरा दिखाई नहीं पड़ता। उसका कोई चेहरा नहीं है। उसका चेहरा हो भी नहीं सकता। सभी चेहरे चूंकि उसके हैं, कोई भी चेहरा उसका नहीं हो सकता। अगर उसका भी अपना कोई चेहरा है, तो फिर सभी चेहरे उसके नहीं हो सकते।
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