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ताओ उपनिषद भाग २
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लाओत्से की प्रसिद्ध पंक्तियां हैं: ही इज़ नो व्हेयर, बिकाज ही इज़ एवरी व्हेयर । ही इज़ नो वन, बिकाज ही इज़ एवरी वन । कहीं भी नहीं है वह, क्योंकि सब जगह वही है । कोई भी नहीं है वह, क्योंकि सभी में वही है।
उसका कोई चेहरा नहीं हो सकता; उससे मिलन हो सकता है। इसलिए जो लोग चेहरों से आविष्ट हो जाते हैं, वे उससे कभी भी नहीं मिल पाते। कोई राम से जकड़ जाता है। कोई कृष्ण से जकड़ जाता है। कोई जीसस से जकड़ जाता है। ये चेहरे हैं। इन चेहरों में भी वही है, लेकिन ये कोई भी चेहरे उसके नहीं या सभी चेहरे उसके हैं। इसे ध्यान रखना जरूरी है; अन्यथा भूल हो जाती है। तो राम का भक्त राम के चेहरे को ही खोजता रहता है। और वह चेहरा - मुक्त है, फेसलेस है । यह चेहरा ही फिर बाधा बन जाता है। एक सीमा तक राम का चेहरा सहयोगी होता है, क्योंकि राम के चेहरे में उसकी झलक हमें मिली। फिर एक सीमा के बाद राम का चेहरा बाधा बन जाता है, क्योंकि अब चेहरा महत्वपूर्ण हो गया और झलक गैर महत्वपूर्ण हो गई ।
श्री अरविंद ने कहा है कि थोड़ी दूर तक जो सीढ़ियां हैं, थोड़ी देर के बाद बाधाएं बन जाती हैं। थोड़ी दूर तक जो मार्ग था, थोड़ी दूर के बाद वही भटकाव है।
इसलिए हर मार्ग को चुनना ध्यान रख कर कि कब तक वह मार्ग है। और यह बहुत कठिन है, यह बहुत कठिन है। हर सीढ़ी को चढ़ना तब तक, जब तक वह सीढ़ी हो। और जब रोकने लगे, तब उससे हट जाना ।
राम का चेहरा सहयोगी है, क्योंकि राम के चेहरे में जितनी सरलता से उसका शून्य चेहरा प्रकट हुआ है, वैसे कम चेहरों में प्रकट हुआ है। राम का चेहरा उपयोगी है, क्योंकि राम के चेहरे से वह शून्य प्रकट हुआ है। लेकिन फिर चेहरा महत्वपूर्ण होता चला जाएगा। और धीरे-धीरे चेहरा इतना महत्वपूर्ण हो जाएगा कि उस चेहरे से फिर शून्य प्रकट नहीं होगा।
ऐसा निरंतर होता है । बुद्ध के पास जब कोई पहली दफा जाता है, तो बुद्ध के चेहरे से कोई लगाव तो नहीं होता, बुद्ध की आंखों से कोई लगाव नहीं होता । लगावरहित अवस्था होती है। उस क्षण में बुद्ध की आंखों से वह दिखाई पड़ जाता है, जो बुद्ध के पार है। फिर लगाव शुरू होता है। फिर लगाव घना होता है। फिर आसक्ति निर्मित हो जाती है। फिर धीरे-धीरे वह जो पार है, वह दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। फिर तो बुद्ध का चेहरा ही हाथ में रह जाता है। इसलिए बुद्ध ने मरते वक्त कहा कि मेरी मूर्तियां मत बनाना । कारण यह नहीं था कि बुद्ध मूर्ति के विपरीत थे। कारण कुल इतना था कि बुद्ध को दिखाई पड़ा कि वह जो पीछे था, वह तो खोता जा रहा है। मेरा चेहरा महत्वपूर्ण होता जा रहा है। और धीरे-धीरे मेरा चेहरा ही हाथ में रह जाएगा।
लेकिन बुद्ध का चेहरा इतना प्यारा था कि बुद्ध की भी लोगों ने फिक्र नहीं की। कहा था उन्होंने, मेरी मूर्ति मत बनाना; लेकिन जितनी बुद्ध की मूर्तियां बनीं पृथ्वी पर उतनी किसी की मूर्तियां नहीं बनीं। इतनी मूर्तियां बनीं कि बहुत सी भाषाओं में मूर्ति के लिए शब्द ही बुद्ध से बन गया। जैसे उर्दू, अरबी, फारसी में बुत । बुत बुद्ध का अपभ्रंश है। इतनी मूर्तियां बनीं कि कुछ लोगों ने तो पहली जो मूर्ति देखी, वह बुद्ध की ही थी । इसलिए मूर्ति का मतलब ही बुत हो गया, बुत यानी मूर्ति । और बुत का मतलब है बुद्ध । और जिस आदमी ने कहा था मेरी मूर्ति मत बनाना! लेकिन वह चेहरा ऐसा प्यारा था कि उसे छोड़ना मुश्किल था।
यहां कठिनाई खड़ी होती है। चेहरा सहयोगी हो सकता है, अगर पार का दर्शन होता रहे। चेहरा उपद्रव हो जाता है, अगर पार का दर्शन बंद हो जाए। फिर चेहरा दीवार है। अगर पार दिखाई पड़ता रहे, बियांड दिखाई पड़ता रहे, तो चेहरा द्वार है। तो मूर्ति द्वार हो सकती है, अगर निराकार का स्मरण बना रहे।
लाओत्से कहता है, उससे मिलो, फिर भी उसका चेहरा नहीं दिखाई पड़ता । उसके पीछे चलो, लेकिन उसकी पीठ का कोई पता नहीं चलता ।