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________________ ताओ उपनिषद भाग २ दुसरी आकृति की, तीसरे दिन तीसरी आकृति की। बड़ी कीमत की बात थी। कीमत यह थी कि आकार में पूजते थे, फिर भी निराकार को मानते रहे होंगे। नहीं तो रोज आकार बदलेगा कैसे? रोज आकार उसी का बदल सकता है, जो निराकार हो। जिसका आकार है, उसका रोज आकार कैसे बदलेगा? और जो रोज आकार बदल लेता है, उसका अर्थ ही यह हुआ कि उसका कोई निश्चित आकार नहीं है। इसलिए कोई भी आकार में वह प्रकट हो सकता है। हमारे मुल्क में हिंदुओं ने हजारों आकार निर्मित किए हैं ईश्वर के। एक वृक्ष के नीचे रखे हुए अनगढ़ पत्थर से लेकर खजुराहो की सुंदरतम मूर्तियों तक बहुत आकार निर्मित किए हैं। तैंतीस करोड़ देवताओं की कल्पना इस मुल्क में रही है। अनंत आकार निर्मित किए हैं। आकार वालों में और निराकार वालों में बड़ा विरोध है। क्योंकि निराकार वाला सोच नहीं सकता किं जिसका कोई आकार नहीं, उसकी मूर्ति कैसे होगी? और आकार वाला यह नहीं सोच सकता कि जो सब इतने आकारों में प्रकट हुआ है, वह मूर्ति में क्यों प्रकट नहीं होगा? इतने आकारों में जो प्रकट हो रहा है, अनंत-अनंत आकारों में, तो वह मेरी पत्थर की मूर्ति में प्रकट होने में उसे क्या बाधा है? और पत्थर भी उसी का आकार है; अन्यथा पत्थर भी होगा कैसे? इसलिए बहुत बाद में आकार वालों ने मूर्तियां गढ़नी शुरू की। पहले तो कोई भी पत्थर पर सिंदूर लगा कर मूर्ति निर्मित हो जाती थी। सभी पत्थरों में वही है, सिंदूर लगाने से भक्तों के लिए प्रकट हो गया था। इसलिए अगर गांव में जाएं और अनगढ़ पत्थरों पर सिंदूर पुता देखें, तो खयाल में नहीं आता कि यह देवता कैसे बन गया है? शायद गांव के लोग आकार न बना सकते होंगे, मूर्ति न खोद सकते होंगे। नहीं, ऐसा नहीं है। कोई भी पत्थर का कोई भी आकार वस्तुतः उसी का आकार है। सब आकार उसके हैं, तो कोई भी आकार काम दे देगा। इन दोनों विचारों में विरोध दिखाई पड़ता है, क्योंकि हमें निराकार और आकार विपरीत शब्द मालूम पड़ते हैं। लाओत्से के लिए कहीं भी विरोध नहीं है। लाओत्से की मौलिक दृष्टि जीवन में अविरोध को देखना है सभी जगह। गुण भी उसी के हैं; निर्गुण भी वही है। आकार भी वही है; निराकार भी वही है। इसलिए बहुत बढ़िया वचन है यह, 'दैट्स व्हाय इट इज़ काल्ड दि फार्म ऑफ दि फार्मलेस।' हम निराकार को ही उसका आकार कहते हैं। हम निर्गुणता को ही उसका गुण कहते हैं। न होने को भी हम उसका होना कहते हैं। उसकी अनुपस्थिति उसके उपस्थित होने का एक ढंग है। हिज एब्सेंस इज़ जस्ट ए वे ऑफ हिज प्रेजेंस। तब परिभाषा और कठिन हो जाती है। क्योंकि अगर हम शब्दों की विपरीतता मानें, तो सीमाएं खींची जा सकती हैं। अगर हम कहें वह गुणवान है, तो निर्गुण से अलग कर सकते हैं। अगर हम कहें वह आकार वाला है, तो निराकार से अलग कर सकते हैं। या हम कहें कि वह निराकार है, तो आकार को काट सकते हैं और सीमा खींच सकते हैं। लेकिन अगर वह दोनों है, तो सीमा और भी धुंधली होकर खो जाती है। फिर परिभाषा और भी कठिन है। 'वह शून्यता की प्रतिमूर्ति है।' मूर्ति तो सदा ही वस्तुओं की होती है। शून्यता की कैसे मूर्ति होगी? मूर्ति का तो अर्थ ही होता है आकार; निराकार की कैसे मूर्ति होगी? लेकिन लाओत्से कहता है, वह शून्यता की प्रतिमूर्ति है। विपरीत को आत्यंतिक रूप से जोड़ने की चेष्टा है। नहीं है वह, यह भी उसके होने का आयाम है। हमें कठिन पड़ेगा। क्योंकि हमें साफ है, एक चीज है और एक चीज नहीं है। लेकिन कुछ चीजें हमारे अनुभव में भी हैं, जो हैं और जिनको होने की किसी भी भाषा में नहीं रखा जा सकता। आपके हृदय में प्रेम जाग आए किसी के प्रति। है, लेकिन बिलकुल न होने जैसा है। यही तो प्रेमी की तकलीफ है कि जो वह अनुभव करता है, उसे कह भी नहीं पाता। जो वह अनुभव करता है, उसे बता भी नहीं पाता। जो वह अनुभव करता है, अगर प्रमाण मांगे जाएं, तो कोई भी प्रमाण नहीं है। 192
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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