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________________ अक्षय व बिनाकार, सनातन व शुन्यता की प्रतिमूर्ति प्रत्येक वस्तु होती है और नहीं हो जाती है। लेकिन नहीं हो जाने का अर्थ मिट जाना नहीं है। नहीं हो जाने का अर्थ है लीन हो जाना, खो जाना वापस शून्य में। शून्य का अर्थ है अप्रकट हो जाना, अनमेनिफेस्ट हो जाना। मेनिफेस्टेशन और अनमेनिफेस्टेशन, होना और न होना अस्तित्व के दो पहलू हैं। एक बहुत अदभुत घटना है। लाओत्से से कोई मिलने आया है। वह नास्तिक है। और वह कहता है कि ईश्वर नहीं है। और लाओत्से के पास पहले से ही कोई उसका शिष्य बैठा है। वह आस्तिक है। वह कहता है, ईश्वर है। लाओत्से कहता है, तुम दोनों सही हो; क्योंकि तुम दोनों ही ईश्वर के एक-एक रूप की चर्चा कर रहे हो। तुममें कोई विवाद नहीं है। तुममें कोई विरोध नहीं है। ईश्वर का एक रूप है होना और एक रूप है न होना। नास्तिक न होने की चर्चा कर रहा है, आस्तिक होने की चर्चा कर रहा है। और तुम दोनों सही हो और दोनों गलत; क्योंकि तुम दोनों ही अधूरी बातें कर रहे हो। लाओत्से कहता है, ईश्वर है और ईश्वर नहीं है; यह दोनों एक साथ सत्य है। क्योंकि ये दोनों उसके होने के ढंग हैं। तो लाओत्से हमारे लिए मुश्किल हो जाता है। परिभाषा कठिन हो जाती है। कोई कहे, ईश्वर है; तो परिभाषा हो गई। कोई कहे, नहीं है तो भी परिभाषा हो गई। दोनों निश्चित हैं। लाओत्से कहता है, ईश्वर है और नहीं है, दोनों। तो परिभाषा मुश्किल हो गई। लेकिन लाओत्से ठीक कह रहा है। लाओत्से ठीक कह रहा है। न होना भी होने का एक ढंग है—विरोध नहीं, विपरीत नहीं। यह अगर दिखाई पड़े, तो जन्म भी मेरे होने का एक ढंग है और मृत्यु भी मेरे होने का एक ढंग है। जन्म में मैं प्रकट होता; मृत्यु में मैं लीन होता। जागना भी मेरे होने का एक ढंग है; नींद भी मेरे होने का एक ढंग है। जागने में मैं गतिमान होता; नींद में मैं गतिशून्य हो जाता। जागने में मैं बाहर चलता; नींद में मैं भीतर चलने लगता। होश भी मेरे होने का एक ढंग है और बेहोशी भी मेरे होने का एक ढंग है। होश में मेरे भीतर हलन-चलन होता; बेहोशी में सब शांत हो जाता, होश भी शांत हो जाता। हमारे मन में होने और न होने के बीच जो विरोध है, उसे तोड़ देना जरूरी है। तो ही लाओत्से समझ में आए। दोनों में कोई विपरीतता नहीं है, कोई शत्रता नहीं है। दोनों एक ही बात के दो ढंग हैं। तब परिभाषा और कठिन हो गई। क्योंकि पुनः-पुनः वह शून्य में प्रविष्ट हो जाता है। अगर वह सदा बना रहे, तो भी हम उसकी परिभाषा कर सकते हैं। लेकिन वह कभी-कभी खो जाता है, न हो जाता है। तो परिभाषा और मुश्किल हो जाती है। 'इसीलिए उसे निराकार रूप में वर्णित किया जाता है। दैट्स व्हाय इट इज़ काल्ड दि फार्म ऑफ दि फार्मलेस।' इसीलिए निराकार ही उसका आकार कहा जाता है। उसका आकार ही निराकार होना है। वह इस ढंग से है कि आकार, रूप उसमें नहीं हैं। यह भी थोड़ा कठिन पड़ेगा; क्योंकि हमारे सोचने के सभी ढंग चीजों को विपरीत कर लेते हैं। और लाओत्से के सोचने, देखने का ढंग सभी चीजों को जोड़ लेना है। हम जानते हैं उन लोगों को, जो सगुण ईश्वर को मानते हैं। वे कहते हैं, वह आकारवान है, रूपवान है। हम जानते हैं उन लोगों को, जो निर्गुण ईश्वर को मानते हैं। जो कहते हैं, निराकार है, उसकी कोई आकृति नहीं। और कितना विवाद है उनमें! इस्लाम निराकार को मानता है। तो उसने सारी दुनिया से आकार तोड़ने की कोशिश की। जहां-जहां मूर्ति हो, मिटा दो; क्योंकि ईश्वर का कोई आकार नहीं है। आकार मानने वाले लोग हैं। इस्लाम ने, मक्का के मंदिर में तीन सौ पैंसठ मूर्तियां थीं, उनको तोड़ डाला। वे तीन सौ पैंसठ मूर्तियां प्रत्येक दिन के लिए एक ईश्वर का आकार था। पूरे वर्ष के लिए आकार थे। प्रत्येक दिन ईश्वर का एक आकार था। बड़े कल्पनाशील लोग थे, जिन्होंने वह मंदिर बनाया होगा। प्रत्येक दिन के लिए ईश्वर की एक आकृति स्वीकृत थी। उस दिन उस आकृति की पूजा करते थे, दूसरे दिन 191
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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