SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ताओ उपनिषद भाग २ 'और पुनः-पुनः वह शून्यता के आयाम में प्रविष्ट हो जाता है।' जटिलता और बढ़ जाती है परिभाषा की। क्योंकि अस्तित्व, जैसा हम आमतौर से समझते हैं, अस्तित्व का मतलब होता है होना। लाओत्से के लिए न होना भी अस्तित्व है। लाओत्से के लिए होना और न होना अस्तित्व के दो पहलू हैं। तो जब लाओत्से या बुद्ध जैसे लोग कहते हैं नथिंगनेस, न होना, तो हमें बड़ी भ्रांति हो जाती है। हम समझते हैं उनका मतलब है कि जब वे कहते हैं नथिंगनेस, न होना, तो उसका मतलब है कि कुछ भी नहीं है। भूल हो जाती है। बुद्ध या लाओत्से जैसे व्यक्तियों के लिए न-होना अस्तित्व का एक ढंग है। प्रकट होना, अप्रकट होना एक ही चीज की दो व्यवस्थाएं हैं। मैं बोलता हूं; फिर मैं मौन हो जाता हूं। अगर हम बुद्ध से पूछे तो बुद्ध कहेंगे, बोलना और मौन होना एक ही शक्ति के दो ढंग हैं। वह शक्ति कभी बोलती और कभी मौन हो जाती। मौन होने में वह शक्ति मिट नहीं जाती जो बोलती थी, सिर्फ मौन हो जाती है। न होना होने का अप्रकट हो जाना है, मिट जाना नहीं। इसे ठीक से समझ लें तो बहुत सी बातें साफ हो सकेंगी। न होना मिट जाना नहीं है। क्योंकि लाओत्से की दृष्टि है कि जगत में मिट तो कुछ भी नहीं सकता। मिट कहां सकता है? .. अब तो विज्ञान भी कहता है कि कोई भी चीज मिटाई नहीं जा सकती। कैसे मिटाइएगा? एक रेत के छोटे से कण को मिटाने लगिए, तब आपको पता चलेगा कि आप मिटा नहीं सकते। आप पीस डालेंगे। तो जो इकट्ठा था, वह टुकड़ों में मौजूद हो जाएगा। आप जला डालेंगे। तो जो अभी अनजला था, वह जल कर राख हो जाएगा, लेकिन मौजूद रहेगा। आप मिटाइएगा कैसे? आप एक रूप को मिटा कर दूसरा रूप कर देंगे। और कुछ भी न कर पाएंगे। पानी है, तो बर्फ हो सकता है। बर्फ है, तो भाप हो सकती है। नदी सागर हो सकती है। सागर आकाश के बादल बन सकता है। बादल फिर नदियां बन जाएंगे। लेकिन आप मिटा नहीं सकते। पानी की एक बूंद भी मिटाई नहीं जा सकती है। मिटाना असंभव है। यह बहुत मजे की बात है कि विज्ञान कहता है कि जब से अस्तित्व है, न तो एक कण इसमें बढ़ा है और न एक कण घटा है। क्योंकि घटेगा कैसे? और बढ़ेगा कैसे? इतना परिवर्तन होता रहता है, लेकिन टोटल, समग्र उतना का ही उतना है। कितना विराट है अस्तित्व! कितना उपद्रव चलता है! तारे बनते हैं, मिटते हैं, बिखरते हैं। पृथ्वियां आती हैं, खो जाती हैं। कितने लोग, कितने जीवन आते हैं, चले जाते हैं। कितने महल, कितनी कळ, कितना शोरगुल, फिर कितना सन्नाटा! कितनी जीवन की उथल-पुथल और फिर कितनी मृत्यु की शांति! लेकिन इस जगत में एक कण न घटता है और न बढ़ता है। बढ़ेगा कहां से? इस जगत का अर्थ है: सब कुछ। इसके बाहर कुछ भी नहीं है। तो बढ़ेगा कहां से? और इस जगत का अर्थ है: सब कुछ। तो घटेगा कैसे? क्योंकि इसमें से एक कण भी तो कहीं गिर नहीं सकता। जगत की समग्रता, टोटल, जोड़ सदा वही का वही है। उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता। रूप बदलते रहते हैं; जो रूपायित है, वह वही का वही है। चीजें खो जाती हैं, विलीन हो जाती हैं, फिर भी अस्तित्व उतना का ही उतना है। लाओत्से कहता है, और वह पुनः-पुनः शून्यता के आयाम में प्रविष्ट होता है।' ___ यह जो अस्तित्व है, इसके दो आयाम हैं : इसके प्रकट होने का अर्थ है रूप में होना, इसके शून्य में होने का अर्थ है अरूप हो जाना। एक गीत मैं गाऊं, क्षण भर पहले तक वह गीत नहीं था। फिर मैंने गाया। वह गीत हुआ। फिर क्षण भर बाद सब खो गया। वह गीत फिर शून्य में समाविष्ट हो गया। एक फूल खिला। क्षण भर पहले वह नहीं था। सौंदर्य आया। सूरज की किरणों ने उस फूल को नहलाया। वह फूल आनंद से नाचा। उस फूल ने अपने जीवन का गीत गाया। उस फूल ने सुगंध छोड़ी। फिर सांझ कुम्हला गया। फिर गिर गया। फिर खो गया। |190
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy