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अक्षय व निराकार, सनातन व शून्यता की प्रतिमूर्ति
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आपकी परिभाषा हो सकती है कि आपका नाम क्या आपका गांव क्या, आपका पता-ठिकाना क्या, आपकी परिभाषा हो सकती है। लेकिन उसकी कैसे होगी परिभाषा, जो आप में प्रकट हो रहा है— शाश्वत, अनंत । उसकी कोई परिभाषा नहीं हो सकती-क्या होगा उसका गांव! क्या होगा उसका नाम !
बुद्ध से कोई पूछता है कि आपका नाम क्या है? वे घर छोड़ कर चले गए हैं। अपना राज्य छोड़ दिया है, ताकि पहचानने वाले लोग न मिलें । अपरिचित स्थानों में भटक रहे हैं। कोई भी उन्हें देख कर आकर्षित हो जाता है। अप्रतिम उनका सौंदर्य है। भिखारी भी हों, तो भी उनका सम्राट होना छिप नहीं सकता। वह हर तरह से प्रकट हो जाता है। कोई भी राहगीर उत्सुक हो जाता है पूछने को कि आपका नाम क्या ? कौन हैं आप ?
तो बुद्ध कहते हैं, किस जन्म का नाम तुम्हें बताऊं ? किस जन्म का तुम पूछते हो ? क्योंकि मेरे हुए बहुत जन्म और बहुत रहे मेरे नाम । किस जन्म की तुम खबर पूछते हो ? कभी मैं आदमी भी था, और कभी मैं पशु भी था, और कभी मैं वृक्ष भी था। कौन सी तुम्हें खबर दूं?
स्वभावतः पूछने वाला आदमी समझेगा कि पागल से पूछ लिया। लेकिन बुद्ध ठीक कह रहे हैं, किस जन्म की खबर दें? किस नाम की खबर दें? जिसे जीवन का बोध शुरू हो जाए, उसे बड़ी कठिनाई खड़ी हो जाएगी, क्योंकि फिर कोई परिभाषा काम नहीं करती। कोई परिभाषा काम नहीं करती। जैसे अनंत होने लगती है व्यवस्था, वैसे ही परिभाषाएं टूटने लगती हैं।
अक्षय है जीवन, कभी क्षीण नहीं होता । घटनाएं घटती हैं, बिखर जाती हैं; अस्तित्व, अस्तित्व बना रहता है। पहली बात । परिभाष्य क्यों नहीं है? क्योंकि असीम है। ओर-छोर खोजना संभव नहीं है। इसलिए नहीं कि हमारी खोजने की व्यवस्था कमजोर है, इसलिए कि ओर-छोर हैं ही नहीं ।
ईसाइयत ने इस पृथ्वी के जन्म का ऐतिहासिक सूत्रपात माना है । खोजियों ने, ईसाई खोजियों ने तय ही कर रखा कि चार हजार साल पहले, ईसा से चार हजार चार साल पहले, इस पृथ्वी की शुरुआत हुई। और जिन्होंने मेहनत की उन्होंने यह भी तय कर दिया कि सुबह नौ बजे चार हजार चार साल पहले। और जिन्होंने खोज की उन्होंने मिनट और सेकेंड भी तय कर दिए।
लेकिन विज्ञान से फिर बड़ी कठिनाई हुई । ईसाइयत को पश्चिम में जो बड़े से बड़ा नुकसान पहुंचा, वह उसकी इन डेफिनीशंस, परिभाषाओं की वजह से पहुंचा, ये सीमाओं की वजह से पहुंचा। क्योंकि विज्ञान ने सिद्ध किया कि यह तो बचकानी बात है। यह पृथ्वी बहुत पुरानी है, कम से कम चार अरब वर्ष पुरानी है। फिर सारे प्रमाण इकट्ठे हो गए कि चार हजार साल की तो बात बिलकुल ही बेकार है । और दिन- तारीख और समय तय करना सब नासमझियां साइयत को बहुत धक्का पहुंचा इस बात से, हालांकि धर्म का इससे कोई संबंध न था ।
अगर धर्म को हम ठीक से खोजने चलें, तो धर्म कभी भी तय नहीं कर सकता कि कहां चीजें शुरू होती हैं और कहां समाप्त होती हैं। धर्म तो मानता ही यह है कि जो है, वह न शुरू होता और न समाप्त होता । अस्तित्व अनादि है और अनंत है। इसलिए ताओ से, लाओत्से के विचार से विज्ञान का कोई विरोध नहीं हो सकता। क्योंकि लाओत्से यह कह रहा है कि हम अक्षय अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। यह कभी शुरू नहीं हुआ और कभी समाप्त नहीं होगा। चार हजार चार साल पहले दुनिया शुरू हुई, यह तो बचकानी बात हो गई। लेकिन जो कहते हैं कि चार अरब वर्ष पहले शुरू हुई, यह भी बचकानी बात है। सिर्फ समय को लंबा कर देने से कुछ फर्क नहीं पड़ता । चार हजार साल हो कि चार अरब वर्ष हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । लाओत्से तो कहेगा कि चीजें इस जगत में शुरू हो ही नहीं सकतीं। अस्तित्व सदा है। हां, रूप बदल सकते हैं। रूप बदल सकते हैं। रूप नए हो सकते हैं; पुराने हो सकते हैं। आकृतियां बदल सकती हैं। लेकिन वह जो छिपा है आकृतियों के भीतर, वह सदा है, वह सतत है।