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ताओ उपनिषद भाग २
और जब कोई काम सफल हो जाए, तो इसके पहले कि अहंकार का जन्म हो, कर्ता को ओझल हो जाना चाहिए। अन्यथा सफलता से बड़ी असफलता नहीं है। अन्यथा सफलता से बड़ा नर्क नहीं है। अन्यथा अपनी ही सफलता अपने लिए जहर बन जाती है। मकड़ी जैसे अपने ही भीतर से जाले को निकाल कर बुनती है, वैसे ही हम भी अपने चारों तरफ अपने जीवन का उलझाव बुन लेते हैं खुद ही। और कई बार ऐसा हो जाता है कि उस जाले में फंस कर हम ही चिल्लाते हैं कि कैसे मुक्ति हो! कैसे छुटकारा मिले! कैसे स्वतंत्रता संभव हो! यह गुलामी कैसे टूटे! और यह सारी गुलामी हमारा ही निर्माण है। लेकिन निर्माण कुछ ऐसे ढंग से होता है कि जब तक हो ही न जाए, हमें पता नहीं चलता। तो उस सूत्र को हमें समझ लेना चाहिए कि यह अनजानी गुलामी कैसे निर्मित हो जाती है और हम स्वयं ही कैसे निर्मित कर लेते हैं।
पहली बात, इस पृथ्वी पर एक ही मालकियत संभव है-ऐसा स्वभाव है, ऐसा नियम है और वह मालकियत अपनी है। अपने अतिरिक्त और किसी की मालकियत संभव नहीं है। और जब भी कोई अपने सिवाय किसी और पर मालकियत करने जाएगा, तो गुलाम हो जाएगा। अगर महावीर या बुद्ध अपने राजमहल को और अपने राज्य को छोड़ कर निकल जाते हैं, तो आप सदा यही सोचते होंगे कि कितना महान त्याग है कि राज्य को, धन को, संपदा को, इतने राजमहलों को छोड़ कर निकल जाते हैं। तो आप गलती में हैं। महावीर और बुद्ध सिर्फ अपनी गुलामी को छोड़ कर निकल जाते हैं। यह बात उन्हें साफ हो जाती है कि अपने सिवाय और सभी तरह की मालकियत गुलामी है। तो फिर जितनी बड़ी यह मालकियत होगी, उतनी बड़ी गुलामी हो जाती है।
इसलिए यह मजे की बात है, आपने कभी सुना अब तक इतिहास में कि कोई भिखारी अपने भिखमंगेपन को छोड़ कर और त्यागी हो गया हो? किसी भिखारी ने अपना भिक्षा-पात्र छोड़ दिया हो और त्यागी हो गया हो? क्या बात है कि भिखारी भिक्षा-पात्र नहीं छोड़ पाता और कभी कोई सम्राट अपना साम्राज्य छोड़ देता है ? सम्राट तो बहुत हुए हैं साम्राज्य को छोड़ देने वाले, लेकिन भिखारी अब तक इतने साहस का नहीं हो सका कि अपना भिक्षा-पात्र छोड़ दे। बात क्या है? असल में, भिखारी की गुलामी ही इतनी छोटी होती है कि उसे पता ही नहीं चलता कि मैं गुलाम भी हूं। सम्राट की गुलामी इतनी बड़ी हो जाती है और इतनी आत्मघाती हो जाती है कि उसे पता चलता है कि मैं गुलाम हूं। सम्राट के पास साम्राज्य एक कारागृह की तरह खड़ा हो जाता है। भिखारी का भिक्षा-पात्र कारागृह मालूम नहीं पड़ता, क्योंकि अभी भी भिखारी अपने भिक्षा-पात्र को लेकर कहीं भी चल पड़ता है। अभी कारागृह इतना छोटा है कि हाथ में टांगा जा सकता है। लेकिन एक सम्राट अपने कारागृह को लेकर कहीं भी नहीं जा सकता, कारागृह में ही उसे होना पड़ता है। सम्राट छोड़ सके, क्योंकि गुलामी इतनी बड़ी हो गई कि अपनी मालकियत का भ्रम छूट गया। भिखारी नहीं छोड़ पाता, गुलामी इतनी छोटी है कि मालकियत का भ्रम कायम बना रहता है।
इसलिए मैं जानता हूं जैसा, वह ऐसा है कि जब तक आपको भ्रम बना रहे कि आप अपनी चीजों के मालिक हैं, तब तक आप समझना कि आप गरीब आदमी हैं। चीजें इतनी कम हैं कि अभी आपको पता नहीं चल रहा है। जिस दिन आपको पता चलना शुरू हो जाए कि अब चीजें मालिक हैं, उस दिन आप समझना कि आप अमीर हो गए हैं। अमीर का एक ही लक्षण है कि पता चलने लगे कि चीजों का गुलाम हो गया हूं मैं। और गरीब का एक ही लक्षण है कि उसे अभी पता नहीं चलता कि चीजें उसकी मालिक हैं। अभी भी मालकियत का भ्रम उसे कायम रहता है।
लाओत्से कह रहा है कि अगर सच में ही तुम मालिक होना चाहो, तो इस तरह के मालिक मत बन जाना कि तुम्हारी चीजों की रक्षा की भी जरूरत पड़ जाए। क्योंकि तब तुम पहरेदार हो जाओगे। और लाओत्से कह रहा है कि जब किसी भी काम में तुम सफल हो जाओ, तो इसके पहले कि कर्ता का भाव सघन हो, तुम ओझल हो जाना; कोई जान भी न पाए कि तुमने किया है।