________________
सफलता के नवतरे, अळंकार की पीड़ा और स्वर्ग का द्वार
लाओत्से का स्वयं का नाम जब चीन में पहुंच गया गांव-गांव और घर-घर में, और लोग लाओत्से को खोजते हुए आने लगे और रास्ता पूछने लगे कि लाओत्से कहां है, और हजारों मील की यात्रा करके लोगों का आना शुरू हो गया, तो लाओत्से एक दिन ओझल हो गया। फिर लाओत्से का कोई पता नहीं चला उस दिन के बाद। लाओत्से कब मरा और कहां मरा, इसकी कोई खबर नहीं है। बस एक दिन ओझल हो गया। .. वही सलाह वह दूसरों को भी दे रहा है। वह कह रहा है, जब तुम्हारा कार्य पूर्ण हो जाए, सफलता हाथ आ जाए, तो तुम चुपचाप सरक जाना।
लेकिन बड़ी कठिन होगी यह बात। क्योंकि हम उसी क्षण की तो प्रतीक्षा कर रहे हैं, जब सफलता पूर्ण हो जाए। हम भी सरकते हैं कभी, आंख से हम भी ओझल होते हैं, लेकिन सफलता के क्षण में नहीं; असफलता के क्षण में आंख से ओझल होते हैं। जब हार जाते हैं, टूट जाते हैं, पराजित हो जाते हैं, तब हम भी ओझल होते हैं। दुख में, पीड़ा में हम भी भाग जाना चाहते हैं, छिप जाना चाहते हैं। विषाद में, संताप में आत्मघात भी कर लेते हैं। आत्मघात का मतलब ही इतना है कि हम इस बुरी तरह ओझल हो जाना चाहते हैं कि नाम-रेखा भी पीछे न रह जाए। लेकिन अगर कोई आदमी सफलता के क्षण में ओझल हो जाए, तो उसके जीवन में एक क्रांति घटित हो जाती है। असफलता के क्षण में ओझल हो जाना तो बिलकुल ही स्वाभाविक है। मन की चेष्टा ही यही है कि भाग जाओ, अभी छिप जाओ, किसी को पता न चले कि तुम असफल हो गए हो। क्योंकि असफलता अहंकार को पीड़ा देती है, और सफलता अहंकार को तृप्ति देती है और पोषण देती है।
तो जब आदमी सफल होता है, तब तो वह सीना निकाल कर चारों तरफ घूमना चाहता है। तब तो जिनसे वह कभी नहीं मिला था, उनसे भी मिलना चाहता है। जिन्होंने उसे कभी नहीं जाना था, उन्हें भी चाहता है कि वे भी जान लें। तब वह सारे जग में ढिंढोरा पीट देना चाहता है कि मैं सफल हो गया हूं। यह सफलता की खबर के लिए ही तो इतनी चेष्टा, इतना प्रयास था। और यह लाओत्से पागल मालूम पड़ता है। वह कहता है, जब सफल हो जाओ, तो आंख से ओझल हो जाना। क्योंकि सफलता के क्षण में अगर अहंकार निर्मित हो जाए, तो वही तुम्हारा नर्क बन जाएगा। और सफलता के क्षण में अगर तुम ओझल हो सको, तो लाओत्से कहता है, यही स्वर्ग का द्वार है।
'कार्य की सफल निष्पत्ति के अनंतर जब कर्ता का यश फैलने लगे, तब उसका अपने को ओझल बना लेना ही स्वर्ग का रास्ता है।'
तो नर्क का अर्थ हुआ अहंकार और स्वर्ग का अर्थ हुआ अहंकार-शून्यता। कोई और स्वर्ग नहीं है, कोई और नर्क भी नहीं। एक ही नर्क है, मैं जितना सघन ई, उतने गहन नर्क में हूं। मैं जितना विरल हूं, जितना तरल हूं, उतना स्वर्ग में हूं। मैं जितना हूं, उतना नर्क में हूं। मैं जितना नहीं हूं, उतना स्वर्ग में हूं। मेरा होना ही मेरी पीड़ा और मेरा न होना ही मेरा आनंद है।
इसे थोड़ा समझें। जब भी आपने दुख पाया है, संताप झेला है और नर्क की आग में अपने को तड़पते पाया है, तब कभी आपने खयाल किया कि यह पीड़ा क्या है? यह पीड़ा क्यों हो रही है? इस पीड़ा का मौलिक आधार कहां है? यह कोई और मुझे पीड़ा दे रहा है? या मेरे जीने का ढंग या मेरे अहंकार की सघन करने की चेष्टाएं, वे ही मेरी पीड़ा का कारण बन गई हैं? या जब भी आपने कभी आनंद की क्षण भर को भी पुलक पाई हो, तो कभी भीतर झांक कर देखा हो, तो पता चला होगा कि वहां आप मौजूद नहीं होंगे। जब भी आनंद की पुलक होती है, तो भीतर मैं मौजूद नहीं होता। और जब भी नर्क की पीड़ा होती है, तभी भीतर सघन मैं मौजूद होता है। मैं की छाया ही पीड़ा है। लेकिन हमारी सबकी चेष्टा यह है कि मैं को बचा कर मैं स्वर्ग में प्रवेश कर जाऊं; मैं बच जाऊं और आनंद उपलब्ध हो जाए। मैं बचूं, तो आनंद उपलब्ध नहीं होगा। क्योंकि मैं ही दुख है।