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अदृश्य, अश्राव्य व अस्पर्शबीय ताओ
___ हम प्रश्न भी क्या पूछ सकते हैं? प्रश्न भी तो अनुभव से उठते हैं। ध्यान रखें, प्रश्न अनुभव से उठते हैं। हम पूछते हैं कि ईश्वर को जब तक मैं आंख से न देख लूं, तब तक कैसे मानूं? क्योंकि हमारा अनुभव यह है कि जो चीज हम आंख से देख लेते हैं, वह मानने योग्य हो जाती है। फिर उसके झूठ होने का कोई सवाल न रहा।
लेकिन इस पर हमने बहुत खोजबीन नहीं की है। सपना भी हम आंख से ही देखते हैं। और जब सपना देखते हैं, तब वह पूरा सत्य मालूम पड़ता है। सुबह उठ कर पता चलता है कि वह नहीं था। जिस जिंदगी को हम जिंदगी कहते हैं, किसी दिन उससे भी उठ कर अगर पता चले कि जो हमने देखा, वह एक लंबा सपना था! एक आदमी सत्तर साल तक सपने में सोया रखा जा सकता है। उसे सत्तर साल में कभी पता नहीं चलेगा कि जो वह देख रहा है, वह असत्य है।
आंख पर हमारा भरोसा जरूरत से ज्यादा है। रेगिस्तान में कभी जाएं तो दिखाई पड़ता है कि दूर पानी का सरोवर है। आंख बिलकुल खबर देती है। आंख इतनी पक्की खबर देती है कि सरोवर ही नहीं दिखाई पड़ता, उसके किनारे खड़े हुए वृक्षों की छाया भी उसमें दिखाई पड़ती है।
लेकिन वह केवल किरणों का धोखा है। और जब पास पहुंचेंगे, तो वृक्ष तो उस किनारे खड़े मिलेंगे, सरोवर नहीं मिलेगा। मगर इतना साफ दिखाई पड़ रहा था उसमें लहरें उठ रही थीं! तरंगें उठ रही थीं! पास खड़े वृक्षों का प्रतिबिंब बन रहा था! आंख ने पूरा कहा था। पर आंख धोखा दे गई।
हम अगर ईश्वर के संबंध में प्रश्न उठाते हैं, तो हमारे प्रश्न आंख से ही बंधे होते हैं। हम पूछते हैं, दिखाई पड़े, छू लूं हाथ से, कान से सुन लूं। हमारे प्रश्न क्या हैं? हमारी इंद्रियों के अनुभव से उठते हैं। और ध्यान रहे, इंद्रियों के अनुभव से जो प्रश्न उठते हैं, वे उसके किनारे भी नहीं पहुंच पाएंगे; क्योंकि वह अतींद्रिय है। कहीं भी उसे छू नहीं पाएंगे। हमारा अनुभव हमारे प्रश्न का आधार है। और जो हमने जाना ही नहीं है, उसके संबंध में हमारे प्रश्नों का मूल्य क्या है? यह बड़ी कठिन बात मालूम पड़ेगी। जिसे हम जानते ही नहीं, उसके संबंध में हम जिज्ञासा भी क्या कर सकते हैं?
समझें, किसी अपरिचित देश में आप जाएं, जहां गुलाब का फूल न होता हो। फूल ही न होता हो। और लोगों से आप गुलाब के फूल की चर्चा करें, तो वहां के लोग पूछे, प्रश्न उठाएं-उनके अपने अनुभव से। आप कहें बहुत सुंदर होता है, तो वे एक हीरा आपके सामने रख दें और कहें ऐसा सुंदर? तो आपको कठिनाई शुरू होगी। और अगर आप कहें ऐसा सुंदर नहीं, तो वे कहें कि फिर सौंदर्य का मतलब ही क्या रहा? और आप कहें कि हां, थोड़ी दूर तक कह सकते हैं कि ऐसा ही सुंदर, तो वे पूछेगे, वह नष्ट तो नहीं होता? क्योंकि हीरा तो टिकता है। आप कहें, नहीं, वह सुबह खिलता है, सांझ समाप्त हो जाता है। तो वे कहें, यह भी कोई बात हुई? यह भी कोई सौंदर्य हुआ?
आप लाख सिर मारें और उनसे कहें कि यह कुछ भी सौंदर्य नहीं है, क्योंकि यह हीरा तो मुर्दा है, मरा हुआ है। फूल जिंदा सौंदर्य है, जीवित होता है; पर आप उनको न समझा सकेंगे। और उनके जितने प्रश्न होंगे, उनके अपने अनुभव से उठे होंगे।
ऐसे प्रश्न पूछे जा सकते हैं, जो भाषा में संगत मालूम पड़ें, अस्तित्व में व्यर्थ हों। मैं पूछ सकता हूं आपसे कि हरे रंग की सुगंध क्या होती है? भाषा में बिलकुल संगत है। अगर किसी आदमी ने रंग न देखा हो, अंधा आदमी हो, लेकिन सुगंध का प्रेमी हो और आप उससे कहें कि हरा रंग बड़ा सुंदर होता है, तो वह आदमी पूछे कि हरे रंग में सुगंध कौन सी होती है? उसका अनुभव सुगंध का है, उसका प्रेम सुगंध से है। आंख का अंधा है, हरा रंग उसने देखा नहीं। उसका प्रश्न गलत नहीं है; क्योंकि वह अपने ज्ञात से आपके अज्ञात का संबंध बना रहा है। यही तो जानने की और समझने की प्रक्रिया है। वह पूछता है, हरे रंग की सुगंध कैसी होती है?
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