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ताओ उपनिषद भाग २
आप कहेंगे, इररेलेवेंट पूछते हो, असंगत पूछते हो। हरे रंग का सुगंध से क्या लेना-देना? तो वह आदमी कहेगा, जब सुगंध से ही लेना-देना नहीं, तो हरे रंग से हमारा क्या लेना-देना? उसका अनुभव सुगंध का है। तो वह पूछ सकता है कि क्या हरे रंग में दुर्गंध होती है?
उसकी जिज्ञासाएं संगत हैं, फिर भी जिज्ञासाएं हैं। लाओत्से कहता है, वह हमारी जिज्ञासा की पकड़ के बाहर है; क्योंकि जिज्ञासा तो उठेगी ज्ञात से।
तो जिज्ञासा उपयोगी है, अगर अज्ञात की खोज करनी हो। अज्ञेय की खोज करनी हो, तो जिज्ञासा व्यर्थ है। इसलिए जिज्ञासा दर्शन का आधार है, विज्ञान का भी। लेकिन जिज्ञासा धर्म का आधार नहीं है।
तो हमने अपने मुल्क में एक नया शब्द खोजा है। वह है मुमुक्षा, जिज्ञासा नहीं। वह धर्म की आधारशिला है। हम प्रश्न पूछते नहीं; क्योंकि प्रश्न तो हमारे अनुभव से आते हैं। और वह हमारे अनुभव के बाहर है अब तक। उसके संबंध में हमारे प्रश्न असंगत हैं। हम उसके संबंध में कुछ भी नहीं पूछते। हम अपने संबंध में कुछ पूछते हैं। तब मुमुक्षा शुरू हो जाती है। इसे थोड़ा समझ लें।
अंधा आदमी है। वह पूछता है कि क्या हरे रंग में सुगंध होती है? यह जिज्ञासा है। अंधा आदमी पूछता है कि . मुझे तो दिखाई नहीं पड़ता, मुझे दिखाई कैसे पड़ सकता है, ताकि तुम जिस रंग की बात कर रहे हो उसे मैं जान पाऊं? यह मुमुक्षा है—मुझे दिखाई कैसे पड़ सकता है? हरा रंग कैसा है, यह जिज्ञासा है। मैं कैसा हूं और कैसा हो जाऊं, ताकि हरा रंग मुझे दिखाई पड़ सके, जिसकी तुम खबर लाए हो? यह मुमुक्षा है।
जिज्ञासा विचार में ले जाती है, मुमुक्षा साधना में। जिज्ञासा चिंतन को जन्म देती है, मुमुक्षा ध्यान को। जिज्ञासु विचारों में ही भटकता रह जाता है, जहां तक धर्म का संबंध है। मुमुक्षु उस मंजिल पर पहुंच जाता है, जो जिज्ञासा की पकड़ के बाहर है। जो विचार से ही सत्य को समझने चलेगा, वह असफल होगा। जो विचार से ही सत्य को जानने की चेष्टा करेगा, वह कुछ भी न जान पाएगा। क्योंकि विचार हमारा अंधापन है। जो निर्विचार हो सकेगा, उसके लिए, वह जो दुर्ग्राह्य है, तत्क्षण प्रकट हो जाता है, निकट हो जाता है, भीतर-बाहर सब तरफ मौजूद हो जाता है। .
आज इतना ही। पर पांच मिनट रुकें, कीर्तन में सम्मिलित हों और फिर जाएं।
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