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________________ ताओ उपनिषद भाग २ लेकिन हमारे भी कदम बढ़ते हैं धर्म की तरफ। वह धर्म झूठा हो जाता है-हमारे कदमों की गलती के कारण। क्योंकि हम धर्म की तरफ भी और होने के लिए बढ़ते हैं-स्वर्ग कैसे मिल जाए? कि मोक्ष कैसे मिल जाए? कि इस जीवन के पार की भी सुरक्षा कैसे कर लूं? यहां तो मौत दिखाई पड़ती है; ऐसा जीवन कैसे पा जाऊं जहां कोई मौत न हो? यह तो फिर सरवाइवल ही है। यह तो फिर बचने का ही उपाय चल रहा है। इसलिए धर्मगुरु लोगों को समझाते दिखाई पड़ते हैं कि जो हमारे साथ होगा, वही बचेगा। जो हमारे साथ नहीं होगा, वह नहीं बचाया जाएगा। कयामत के दिन, आखिरी निर्णय के दिन, हम ही गवाह होंगे तुम्हारे कि बचाए जाओगे कि नहीं बचाए जाओगे। और ऐसे गुरुओं को बड़ी संख्या में लोग मिल जाते हैं। क्योंकि सभी की आकांक्षा बचने की है। उस आकांक्षा का शोषण किया जा सकता है। बुद्ध जैसे गुरु को शिष्य मिलना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि बुद्ध कहते हैं : मिटो, खो जाओ, बचो ही मत। तुम्हारा होना ही तुम्हारा संताप है। शून्य हो जाओ। लाओत्से कहता है, 'इसलिए उसे अस्पर्शनीय कहा जाता है।' क्योंकि छूने वाला बचता नहीं। जब वह सामने भाता है, तब हम खो जाते हैं। जब तक हम होते हैं, छू सकते हैं, पकड़ सकते हैं, तब तक वह नहीं होता है। इन दोनों का कहीं मिलन नहीं है। यह मिलन असंभव है। फिर भी मिलन होता है, लेकिन किसी दूसरे आयाम में। मेरे न होने का और उसके होने का मिलन होता है। मेरे होने का और उसके होने का कोई मिलन नहीं होता। जब तक मैं हूं, तब तक वह नहीं है। और जब मैं नहीं हो जाता हूं, तब पूरा अस्तित्व रूपांतरित हो जाता है, तब वह हो जाता है। मेरा न होना ही उसके देखने की आंख बनती है, उसके छूने का हाथ बनता है। मेरा न होना ही वह जगह बनती है, जहां वह प्रकट होता है। मेरा न होना ही सिंहासन है उसके लिए। जब तक अपने सिंहासन पर मैं ही काफी भरा हुआ बैठा हूं, उसके लिए कोई जगह नहीं है। झेन फकीरों ने कहा है, मेहमान घर में आता है, तो हम जगह बनाते हैं, कमरा खाली करते हैं उसके ठहराने के लिए। उस परम मेहमान को जो बुलाने गया है, उसे तो बिलकुल खाली कर देना होगा अपने को। जरा भी भीतर स्वयं का होना न बचे। 'इसलिए वह अस्पर्शनीय कहा जाता है।' 'इस प्रकार वह अदृश्य, अश्राव्य, अस्पर्शनीय और हमारी जिज्ञासा की पकड़ के बाहर, हमारी जिज्ञासा से छूट-छूट जाता है और दुर्ग्राह्य बना रहता है।' हमारी जिज्ञासा से छूट-छूट जाता है। इसे आखिरी बात समझ लें: इंक्वायरी, जिज्ञासा से वह छूट-छूट जाता है। अभी मैंने आपको कहा कि विज्ञान और धर्म में एक फर्क है-कैटेगरीज का। विज्ञान दो कोटियां मानता है अस्तित्व की, धर्म तीन। वह तीसरी कोटि ही धर्म का आधार है। जिज्ञासा दर्शनशास्त्र का स्रोत है। इंक्वायरी, पूछताछ, प्रश्न फिलासफी का आधार है। दुनिया में कोई फिलासफी, कोई दर्शन नहीं होगा, जिज्ञासा अगर समाप्त हो जाए। लेकिन जिज्ञासा धर्म का आधार नहीं है। इसलिए पश्चिम के लोग तो कहते हैं कि हिंदुस्तान में फिलासफी जैसी कोई चीज ही नहीं है। वे थोड़ी दूर तक ठीक कहते हैं। वे थोड़ी दूर तक ठीक कहते हैं। जिस अर्थों में यूनान में फिलासफी रही और पश्चिम में है, उस अर्थों में भारत में फिलासफी कभी नहीं रही। क्योंकि भारत में जिज्ञासा से उसे पाया ही नहीं जा सकता। चीन में भी, पूर्व में, समस्त पूर्वीय चिंतना में जिज्ञासा से उसे नहीं पाया जा सकता, जिज्ञासा की पकड़ के बाहर है। हम जो प्रश्न उठा सकते हैं, वे प्रश्न उसके चरणों तक नहीं पहुंच पाते। हमारे प्रश्न छोटे पड़ जाते हैं। 1800
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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