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अदृश्य, अश्राव्य व अस्पर्शनीय ताओ
न आ जाए कि मुट्ठी में कोई चीज है, तब तक वह नहीं मानता। इसीलिए तो लोग पूछते देखे जाते हैं कि जब तक मैं ईश्वर को न देख लूं, तब तक मैं कैसे मानं? जब तक मेरी मुट्ठी में न आ जाए!
कार्ल मार्क्स ने कहा है कि जब तक प्रयोगशाला की टेबल पर डिसेक्शन न हो जाए ईश्वर का, हम उसकी चीर-फाड़ न कर लें, तब तक हम न मान सकेंगे। लेकिन ईश्वर को प्रयोगशाला की टेबल पर लिटाना बहुत मुश्किल पड़ेगा। कम से कम ईश्वर से बड़ी तो प्रयोगशाला की टेबल चाहिए ही होगी। और मार्क्स को भी बड़ी कठिनाई होगी, क्योंकि उतनी बड़ी टेबल पर लेटा हुआ ईश्वर! मार्क्स बड़ा छोटा पड़ जाएगा किनारे खड़ा। जांच-पड़ताल कर नहीं पाएगा। बहुत छोटा पड़ जाएगा। जैसे हिमालय के पास कोई मच्छर खोजबीन करता हो।।
फिर भी मच्छर और हिमालय में जो अनुपात है, वह बहुत भेद का नहीं है, बहुत बड़ा भेद नहीं है। मच्छर और एवरेस्ट में भी अनुपात है, वह बहुत बड़ा नहीं है। बहुत बड़ा फासला नहीं है। लेकिन मार्क्स और ईश्वर में जो अनुपात है, उसमें तो कोई हिसाब लगाना मुश्किल है। एवरेस्ट के सामने मच्छर भी काफी बड़ा है, ईश्वर के सामने मार्क्स मच्छर भी नहीं हो सकता है।
लेकिन मार्क्स कहता है, जब तक हम चीर-फाड़ न कर लें टेबल पर रख कर, तब तक हम न मान पाएंगे।
यह मार्क्स ही कहता तो ठीक था, हमारा सब का मन भी यही कहता है कि हम विराट को भी तभी मानेंगे, जब हमारे क्षुद्र की मुट्ठी में वह हो। जब तक मैं न कहूं कि वह है, तब तक वह है ही नहीं। उसके होने के लिए भी मेरी गवाही की जरूरत है।
लाओत्से कहता है, 'उसे समझें, फिर भी वह अछूता रह जाता है।' क्योंकि जो छू सकता था, वह खो चुका होता है। 'इसलिए उसे अस्पर्शनीय कहा है।'
उसे छुआ नहीं जा सकता, क्योंकि छूने के पहले ही छूने वाला पिघल जाता है और खो जाता है। छू ही तब पाते हैं हम उसे, जब हम खो गए होते हैं, पिघल गए होते हैं। मिटे बिना उसे जानने का कोई उपाय नहीं है।
हमारे जीवन की सारी धारा होने की है। और धर्म की सारी धारा मिटने की है, न होने की है। इसीलिए तो धर्म से हमारा कोई संबंध नहीं जुड़ पाता; क्योंकि हमारे चिंतन की पूरी प्रक्रिया होने की है। - डार्विन ने कहा है कि आदमी का पूरा जीवन-न केवल आदमी का, पूरी मनुष्य-जाति का-एक शब्द में कहा जा सकता है : स्ट्रगल फॉर सरवाइवल, बचे रहने का संघर्ष।
ठीक डार्विन कहता है। लेकिन बुद्ध को नहीं समझाया जा सकता इस बचे रहने के संघर्ष से। और अगर एक भी आदमी नहीं समझाया जा सकता, तो यह बचे रहने का संघर्ष पूरा सिद्धांत नहीं है। क्योंकि बुद्ध को अगर हम समझाएं तो हमें कहना पड़ेगाः न हो जाने का संघर्ष, न हो जाने की चेष्टा, मिट जाने की चेष्टा, खो जाने की चेष्टा।
हम सब की चेष्टा है बने रहने की, और हो जाने की, और ज्यादा हो जाने की। बुद्ध की चेष्टा है न हो जाने की, रिक्त, शून्य, खो जाने की। हम अगर पानी हैं, तो हम बर्फ होना चाहते हैं-सख्त, मजबूत, सुरक्षित। बुद्ध अगर बर्फ हैं, तो पिघल कर पानी हो जाना चाहते हैं–तरल। और बस चले उनका, तो भाप हो जाना चाहते हैं। कोई आकार भी न रहे। और बस उनका चले, तो भाप भी नहीं रह जाना चाहते हैं। क्योंकि उसका भी कहीं न कहीं अस्तित्व में कोई न कोई आकार तो है।
धर्म है मिटने का दुस्साहस। इसलिए जो आदमी भी धर्म की तरफ जाता है, उसे ठीक से समझ लेना चाहिए कि मिटने की तैयारी है? होने का दुख खयाल में आ गया है? होने का नर्क समझ में आ गया है? तो ही धर्म की तरफ कदम बढ़ते हैं।
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