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ताओ उपनिषद भाग २
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जानते, बेहोश पड़े रहते हैं। बाकी जो चालीस साल हम सोचते हैं कि हम जानने की अवस्था में होते हैं, अगर उसमें भी खोजबीन करने जाएं, तो चालीस क्षण भी अगर मिल जाएं जानने के तो बहुत हैं । वह भी नींद में ही गुजरता है वक्त। वह भी नींद में ही गुजरता है वक्त । जानने के लिए जितना होश चाहिए, वह एक क्षण को भी हम नहीं जुटा पाते। बेहोशी में ही हम सरकते हैं। इस बेहोश चित्त से, इस नींद से भरे चित्त से विराट को जानने हम चलते हैं।
अगर आपसे कहा जाए कि इस दीए की लौ पर पांच मिनट ध्यानपूर्वक रुके रहें, कि आपका मन और कहीं न जाए, पांच मिनट यह दीए की लौ ही आपके लिए एकमात्र अस्तित्व रह जाए, तो आपको पता चलेगा कि कितना कठिन है। पांच मिनट इस दीए की लौ को भी सतत नहीं जाना जा सकता। बीच में हजार बाधाएं आ जाती हैं, हजार विचार आ जाते हैं। झपकी आ जाती है। मन कहीं और चला जाता है। एक क्षण को दीए की लौ भूल जाती है; कुछ और स्वप्न साकार हो जाता है। पांच मिनट दीए की लौ को सतत नहीं जाना जा सकता, तो इस विराट जीवन के विस्तार को, जो अनादि और अनंत फैला हुआ है, उसे जानने की कहां से क्षमता जुटाएंगे? कैसे ?
फिर मैं आज हूं, कल नहीं था, कल फिर नहीं हो जाऊंगा। और यह अनंत विस्तार सदा से है और सदा रहेगा। मैं नहीं था, तब भी था। मैं नहीं रहूंगा, तब भी होगा। इस सबको मैं कैसे जानूंगा? मेरा होना इतना क्षणिक है! एक लहर छलांग लगाती है आकाश में और सोचती है उस बीच कि सागर को जान लूं। जब तक वह सोच भी नहीं पाती, छलांग समाप्त हो गई। लहर विसर्जित हो गई, नीचे गिर गई। आदमी की चेतना ऐसी ही एक छलांग है। जानना कैसे हो पाएगा ?
लेकिन क्या धर्म यह कहता है कि अज्ञान आत्यंतिक है, जानना हो ही नहीं सकेगा ?
नहीं; धर्म यह कहता है, जब तक जानने की चेष्टा है, तब तक जानना नहीं हो सकेगा। क्योंकि जानने की चेष्टा में अहंकार है, मैं है। जब तक मुट्ठी बांधने की कोशिश है, तब तक जानना नहीं हो सकेगा। क्योंकि मुट्ठी क्षुद्र है । खोलते ही मुट्ठी विराट हो जाती है। खोलते ही मुट्ठी की कोई सीमा नहीं रह जाती। बुद्धि को खोल दें, उसके द्वार - दरवाजे तोड़ दें, उसे विराट आकाश के साथ मिल जाने दें, कोई सीमा न रखें; तो जानना घटित होगा ।
लेकिन फिर भी यह सूत्र कहता है, समझें, फिर भी बह अछूता रह जाएगा। जानना घटित हो जाएगा, समझ भी आएगी, फिर भी यह खयाल में साथ आएगा कि वह अस्पर्शित रह गया। क्यों
अनेक कारणों से। पहला कारण तो यह है, कबीर ने कहा है, मैं खोजते खोजते खुद खो गया। खोजने की प्रक्रिया ऐसी है कि उसमें खोजने वाला मिट जाता है। तो जब खोजने वाला मिट जाएगा, तो छुएगा कौन? स्पर्श किससे होगा ? यह बड़ी अदभुत घटना है कि कभी भी कोई साधक का ईश्वर से मिलन नहीं हो पाया। होगा भी नहीं कभी। क्योंकि जब ईश्वर सामने होता है, तो साधक खो जाता है। और जब तक साधक होता है, तब तक ईश्वर सामने नहीं होता । साधक की जो होने की व्यवस्था है, अहंकार, मैं, वही तो बाधा है।
निकोडेमस ने जीसस से जाकर पूछा कि मैं क्या छोड़ दूं कि मैं परमात्मा को पा लूं ? तो जीसस ने कहा, और कुछ छोड़ने से नहीं चलेगा, निकोडेमस को ही छोड़ना पड़े। तुझे स्वयं को ही छोड़ना पड़े। निकोडेमस ने कहा, और सब तो मैं छोड़ सकता हूं, लेकिन स्वयं को कैसे छोडूंगा? और सब तो मैं छोड़ कर भाग सकता हूं, लेकिन स्वयं को छोड़ कर कहां भागूंगा? मैं तो अपने साथ ही पहुंच जाऊंगा। तो जीसस ने कहा, वही कला सीखनी पड़ेगी। जिस दिन तू भागे और निकोडेमस पीछे रह जाए, उस दिन ही मिलन हो सकता है।
जिस दिन समझने वाला न हो भीतर, उस दिन समझ आ जाएगी। और जिस दिन जानने वाला न हो भीतर, उस दिन ज्ञान प्रकट हो जाएगा। और जिस दिन बांधने वाली मुट्ठी न हो, उस दिन सारा आकाश हाथ में है।
लेकिन अहंकार बहुत कंजूस है, बहुत कृपण है— सभी दिशाओं में। और जब तक अहंकार को पक्का भरोसा