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________________ अदृश्य, अश्राव्य व अस्पर्शनीय ताओ 171 हिस्से में। शुभ और अशुभ है – बुराई अलग, भलाई अलग। बुद्धि कहेगी, परमात्मा शुभ है। फिर अशुभ का क्या होगा ? सचाई यह है कि शुभ और अशुभ अस्तित्व में दो नहीं, एक हैं। बुद्धि जब भी किसी चीज को देखती है, तो दो जाते हैं। यह बुद्धि के देखने के ढंग के कारण ! इसे ठीक से समझ लें। यह बुद्धि के देखने का ढंग है, जो चीजों को दो कर देता है। चीजें दो नहीं हैं। अगर हम बुद्धि को हटा दें, इस पृथ्वी से बुद्धि को हटा लें, एक क्षण को सोचें कि पृथ्वी से मनुष्य विलीन हो गया, तब कोई चीज कुरूप होगी और कोई चीज सुंदर होगी ? नहीं, कोई चीज कुरूप नहीं होगी, कोई चीज सुंदर नहीं होगी। चीजें होंगी; लेकिन सुंदर और कुरूप नहीं होंगी। क्योंकि सुंदर और कुरूप बुद्धि का विभाजन था । बुद्धि के हटते ही विभाजन खो जाएगा। सुंदर और कुरूप एक ही हैं, एक ही चीज के दो छोर हैं। वे रह जाएंगे। लेकिन विभाजन करने वाला प्रिज्म बीच से अलग हो गया, तो सब किरणें एक हो जाएंगी, रंगहीन हो जाएंगी। यह मजे की बात है कि सब किरणें मिल कर रंगहीन हो जाती हैं और टूट कर रंग वाली हो जाती हैं। बिलकुल विपरीत! इकट्ठे होकर सातों रंग सफेद बन जाते हैं, टूट कर सात रंग बन जाते हैं। बिलकुल विपरीत ! तो जिसने प्रिज्म से किरण को देखा है, वह सोच भी तो नहीं पा सकता कि प्रिज्म के बाहर किरण कैसी होती होगी । इंद्रधनुष बनता है आकाश में। किरणें तो सदा आकाश में आर-पार होती रहती हैं। लेकिन इंद्रधनुष तब बनता है, जब पानी की बूंदें प्रिज्म का काम करती हैं। पानी की बूंदों से गुजर कर सूरज की किरण सात रंगों में टूट जाती है, इंद्रधनुष बन जाता है। जिसने इंद्रधनुष देखा है और किरण का और कोई रूप नहीं देखा, वह जो भी कहेगा किरण के संबंध में वह गलत होगा। कभी वह कहेगा वह किरण लाल है, कभी वह कहेगा नीली है, कभी कहेगा हरी है। जो उसको प्रीतिकर होगा रंग, वही चुन लेगा। लेकिन वह किरण रंगहीन है, यह उसे खयाल भी न आएगा। सात रंगों में से किसी एक रंग की हो सकती है, यह तो खयाल आएगा; लेकिन रंगहीन है, यह खयाल नहीं आएगा। यही तकलीफ बुद्धि की भी है। बुद्धि से गुजर कर चीजें दिखाई पड़ती हैं। तो कोई प्रकाश मान सकता है ईश्वर को, कोई अंधेरा मान सकता है। जीसस जिस छोटे से रहस्यवादियों के संप्रदाय में सबसे पहले दीक्षित हुए, वह था इजिप्त का इसेन संप्रदाय । वह अकेला संप्रदाय है जगत में, जिसने ईश्वर को अंधकार रूप माना है। ईश्वर परम अंधकार है, टोटल डार्कनेस । वह भी काव्य है । और अंधकार की भी अपनी कविता है । और कोई कारण नहीं है कि प्रकाश से ही उस कविता को प्रकट किया जा सके। और कभी तो ऐसा लगता है कि इसेनी साधकों ने परम अंधकार कह कर ईश्वर को जो गहराई दी, वह प्रकाश कहने वाले कोई भी लोग कभी नहीं दे सके। क्योंकि प्रकाश में एक तरह की उत्तेजना है और अंधकार में परम शांति है। और प्रकाश की तो सीमा होती है, अंधकार असीम है। और प्रकाश तो आता है, जाता है; अंधकार सदा बना रहता है। और प्रकाश को तो पैदा करना पड़ता है किसी स्रोत से; अंधकार स्रोतहीन है। तो प्रकाश तो कहीं दीए से पैदा होता है, कहीं सूरज से पैदा होता है; लेकिन किसी चीज से पैदा होता है। ईंधन की भी जरूरत पड़ती है, चाहे दीए में हो और चाहे सूरज में। वैज्ञानिक कहते हैं, सूरज का ईंधन भी चुकता जाता है। कोई तीन-चार हजार साल में वह ठंडा हो जाएगा। तो प्रकाश तो चुक सकता है; अंधकार चुकता ही नहीं । इसलिए इसेनी फकीरों ने जो धारणा की कि ईश्वर परम अंधकार है, उसमें बड़ी सूझ है। हमें नहीं पकड़ में आती, उसकी वजह है कि हमें अंधकार से डर लगता है। इसलिए सारे भयभीत लोगों ने ईश्वर को प्रकाश कहा है, वह भय के कारण। अंधेरे में हमें लगता है डर, तो ईश्वर को अंधकार तो हम मान नहीं सकते। क्योंकि फिर अंधकार को प्रेम करना पड़ेगा। प्रकाश में भय कम लगता है।
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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