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ताओ उपनिषद भाग २
तापमान की। लेकिन बुद्धि दो में तोड़ देती है। बुद्धि मानने को राजी न होगी कि ठंडा और गर्म एक ही चीज है। तब तो बर्फ और आग हमें एक दिखाई पड़ने लगे!
हम कहेंगे, बर्फ और आग एक कैसे हो सकती है?
लेकिन बर्फ आग के ही तापमान का कम अंश है। और आग भी बर्फ के ही तापमान का हिस्सा है। एक ही तापमान की डिग्रियां हैं। एक छोर पर बर्फ है, दूसरे छोर पर आग है। लेकिन तापमान एक है। तो थर्मामीटर दोनों को नाप लेगा, आग को भी और बर्फ को भी। अगर आग और बर्फ दो चीजें होतीं, तो हमें दो थर्मामीटर की जरूरत पड़ती। एक ही थर्मामीटर दोनों को नाप लेता है; क्योंकि दोनों एक ही चीज की श्रृंखला हैं। लेकिन बुद्धि दो में तोड़ लेती है।
घृणा और प्रेम! ठंडक और गर्मी को समझना तो बहुत आसान हो जाएगा। इतना कठिन नहीं, क्योंकि हमसे बहुत दूर है। घृणा और प्रेम भी एक ही चीज की दो स्थितियां हैं। मन मानने को राजी न होगा। कहां घृणा, कहां प्रेम? कहां क्षमा, कहां क्रोध? कहां भोग, कहां त्याग? कहां संसार की आकांक्षा, कहां मोक्ष की? लेकिन एक ही थर्मामीटर नापने में समर्थ है। घृणा और प्रेम एक ही चीज के दो छोर हैं।
इसलिए कोई भी प्रेम कभी भी घृणा बन सकता है और कोई भी घृणा कभी भी प्रेम बन सकती है। अक्सर होता ही है। प्रेम घृणा बन जाता है; घृणा प्रेम बन जाती है। मित्र शत्रु हो जाते हैं; शत्रु मित्र हो जाते हैं। अगर घृणा और प्रेम एक ही न होते, तो मित्र के शत्रु होने का कोई उपाय न था। शत्रु फिर मित्र कैसे होता?
मैक्यावेली ने अपनी अदभुत किताब दि प्रिंस में सलाह दी है सम्राटों को कि मित्र से भी वह मत कहना जो शत्रु से कहने में डर हो। क्योंकि मित्र कभी भी शत्रु हो सकता है। और शत्रु के भी साथ वैसा व्यवहार मत करना जैसे व्यवहार के करने से मित्र के प्रति दुर्भावना प्रकट हो। क्योंकि जो आज शत्रु है, कभी मित्र हो सकता है। जो शत्रु है, वह बीज रूप से मित्र है, पोटेंशियली, आज भी। कभी भी मित्र हो सकता है। शत्रुता और मित्रता एक ही संबंध के दो छोर हैं।
बुद्धि सब चीजों को दो में तोड़ लेती है। जन्म और मृत्यु को तोड़ लेती है। - जन्म और मृत्यु एक ही जीवन के दो छोर हैं। एक तरफ जन्म है, दूसरी तरफ मृत्यु है। और इन दोनों में कहीं भी बीच में कोई व्याघात नहीं पड़ता, कोई गैप नहीं आता। जन्म ही तो मृत्यु बन जाता है। तो इनको दो कहना सिर्फ नासमझी है। जन्म और मृत्यु के बीच में कहीं कोई खाली जगह है, जहां जन्म समाप्त होता है और मृत्यु शुरू होती है? जन्म ही तो बढ़ते-बढ़ते मृत्यु बन जाता है। तो जन्म मृत्यु का ही एक छोर है। एक तरफ से देखते हैं जीवन को, तो जन्म मालूम पड़ता है; दूसरी तरफ से देखते हैं, तो मृत्यु मालूम पड़ती है। लेकिन वे एक ही चीज के दो हिस्से, एक ही चीज के दो नाम, दो छोर हैं।
बुद्धि हर चीज को दो में तोड़ लेती है। और दो में तोड़ने के कारण बुद्धि जो भी वक्तव्य देती है वह अधूरा होता है। अगर हम ईश्वर को कहें कि वह प्रकाश है, जैसा कि बहुत शास्त्रों ने कहा है, कुरान ने कहा है, उपनिषदों ने कहा है, बाइबिल ने कहा है, ईश्वर को प्रकाश कहा है। वह हमारी आकांक्षा को प्रकट करता है, वहां तक तो ठीक है। वह हमारे भाव को प्रकट करता है, वहां तक तो ठीक है। काव्य की तरह तो ठीक है लेकिन तथ्य की तरह झूठ है। क्योंकि फिर अंधेरा कौन होगा? अगर ईश्वर ही सब कुछ है, तो अंधेरा कौन होगा?
ईश्वर प्रकाश और अंधेरा दोनों है। असल में, प्रकाश और अंधेरा एक ही चीज के दो छोर हैं। ऐसा कोई भी अंधेरा नहीं है, जहां प्रकाश मौजूद न हो। अंधेरा प्रकाश की ही एक अवस्था है। और ऐसा कोई प्रकाश नहीं है, जहां अंधेरा मौजूद न हो। ऐसा कोई जन्म नहीं, जहां मृत्यु न हो। ऐसी कोई मृत्यु नहीं, जहां जन्म न हो। एक के ही दो छोर हैं। लेकिन बुद्धि दो में तोड़ लेती है। तो फिर अंधेरे को हम शैतान के हिस्से में दे देते हैं, प्रकाश को परमात्मा के
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