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ताओ उपनिषद भाग २
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तो हम ईश्वर को परम प्रकाश मानते हैं। ये हमारी आकांक्षाएं हैं। लेकिन कोई असुविधा नहीं है, कोई ईश्वर अंधकार माने तो अड़चन नहीं है। लेकिन वह मानना भी उतना ही भ्रांत है, जितना प्रकाश । क्योंकि हम एक को छोड़ेंगे। इसेनी फकीर की भी तकलीफ है— अगर वह अंधकार मानता है, तो फिर प्रकाश नहीं मान सकता। क्योंकि बुद्धि कहेगी, दोनों एक साथ कैसे ? जो प्रकाश मानते हैं, वे कहेंगे, अंधकार फिर नहीं हो सकता ईश्वर । दोनों एक साथ कैसे ? बुद्धि ने तोड़ दिया दो में, फिर एक ही हो सकता है।
ईश्वर शुभ है; सब श्रेष्ठतम, सुंदरतम, शुभतम गुण हमने उसमें स्थापित कर दिए। फिर अशुभ की कठिनाई हो जाती है। लेकिन ईश्वर को अशुभ मानने वाले लोगों का भी वर्ग रहा है। शैतान को भी पूजने वाले लोगों का वर्ग रहा है। और अभी अमरीका में बीसवीं सदी का पहला एक बड़ा चर्च निर्मित हुआ है - फर्स्ट चर्च ऑफ शैतान । उसके मानने वाले हैं कोई हजारों की संख्या में। वे शैतान को ही ईश्वर मानते हैं। अशुभ ही ईश्वर है । और तर्क में उनके भी बल है। क्योंकि वे कहते हैं, शुभ है कहां ? सिर्फ धारणा है। तथ्य तो अशुभ है। भलाई है कहां ? सिर्फ कल्पना है। बुराई तो मौजूद है। जो मौजूद है, वही परमात्मा है। जो कल्पना है, सपना है, उसके परमात्मा होने की क्या बात करनी ? तो अहिंसा होगी स्वप्न में, हिंसा मौजूद है।
तो शैतान ईश्वर है। उसके पुरोहित हैं, उसके चर्च हैं। छिपे हैं, क्योंकि जो शुभ मानने वाले लोग हैं ईश्वर को, वे भी इतने शुभ नहीं हैं कि ये चर्च अगर प्रकट हो जाएं, तो इनको बचने दें। इनकी हत्या कर डालें ! वही तो शैतान को ईश्वर मानने वाले लोगों का कहना है कि ये जो भला मान रहे हैं ईश्वर को, इन्होंने इतनी बुराई की है कि जिससे सिद्ध होता है कि असली ईश्वर तो बुराई है। और भलाई का बहाना लेकर भी वही बुराई प्रकट होती है। भलाई का बहाना लेकर भी बुरा ही जब प्रकट होता हो, तो असलियत बुराई ही है । क्यों न इसे स्वीकार कर लें ?
शैतान को ईश्वर मानने वालों का कहना यह है कि आदमी कमजोर है, इसलिए बुराई को स्वीकार नहीं कर पाता। अन्यथा बुराई है। उससे बच-बच कर भी बचना कहां हो पाता है? उसे हम स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं, हम उसे पूजते हैं, हम अंगीकार करते हैं।
जो शैतान मान ले ईश्वर को, उसको भलाई को इनकार करना पड़ेगा जगत से, है ही नहीं। जो भलाई मान ले ईश्वर को, उसे बुराई को इनकार करना पड़ेगा कि बुराई है ही नहीं। और बुद्धि दो में तोड़ कर देखती है और एक को चुनती है।
इसलिए तीसरी बड़ी कठिनाई है, वह यह है कि उस परम सत्य के लिए जो सब है एक साथ, सातों किरण एक साथ, रंगहीन है। उसे लाल कहें, तो गलती हो जाती है; पीला कहें, तो गलती हो जाती है; नीला कहें, तो गलती हो जाती है। और हमारी आंखें रंग ही देख पाती हैं। वह जो रंगहीन अस्तित्व है, वह हमें नहीं दिखाई पड़ता है।
इस सूत्र को अब हम समझने की कोशिश करें। 'उसे देखें, फिर भी वह अनदिखा रह जाता है।'
उसे देखना तो हो सकता है, क्योंकि देखना मेरे हाथ में है। लेकिन वह दिखाई नहीं पड़ता है। मैं आंखें गड़ा कर उसे खोज सकता हूं। फिर भी मेरी आंखें जिस दिन उस पर पहुंचती हैं, उस दिन कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता है। एक महान रिक्तता ही दिखाई पड़ती है।
इसलिए परम गोपनीय सूत्र है साधकों का कि जब तक तुम्हें कुछ दिखाई पड़ता रहे, तब तक समझना कि ईश्वर नहीं दिखाई पड़ा। ध्यान में भी जब तक तुम्हें कुछ दिखाई पड़ता रहे, तब तक समझना कि ईश्वर दिखाई नहीं पड़ा। प्रकाश दिखाई पड़े, आनंद दिखाई पड़े, कुछ भी दिखाई पड़े - राम दिखाई पड़ें, कृष्ण दिखाई पड़ें, जीसस, बुद्ध दिखाई पड़ें – जब तक तुम्हें कुछ दिखाई पड़े, तब तक जानना कि वह अभी दिखाई नहीं पड़ा है।