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अळंकार-शव्य व्यक्ति ही शासक होने योग्य
होकर ही वह उपस्थित है। कितनी दफे लोगों ने चिल्ला कर नहीं कहा है कि अगर हो, तो एक दफा प्रकट होकर बता दो! कितनी चुनौतियां नहीं लोगों ने दी हैं। लेकिन कोई चुनौती उस तक नहीं पहुंचती। क्योंकि जो चुनौती सुन सके, वह अस्मिता, वह केंद्र वहां नहीं है। इसलिए परमात्मा गैर-मौजूद बना रहता है, अनुपस्थित बना रहता है। यह सारा विराट उसके हाथ से संचालित होता रहता है, सिर्फ इसीलिए कि वहां कोई संचालक नहीं है। वहां कोई अहंकार नहीं है।
और लाओत्से जैसे लोगों की कल्पना रही है यह कि मनुष्य-जाति उसी दिन उस व्यवस्था को उपलब्ध हो सकेगी जिसकी सतत चेष्टा रही है, वह व्यवस्था उस दिन फलित हो सकती है जिस दिन हम ऐसे व्यक्ति के हाथ में सत्ता दें।
लेकिन यहां तो और प्रयोजनों से भी उसने कहा है। बड़ा प्रयोजन उसने यह कहा है कि जिसके भीतर कोई अहंकार नहीं है, उसे संसार के सबसे बड़े सिंहासन पर भी बिठा दें, तो अंतर नहीं पड़ता है। वह धूल में पड़ा रहे तो और सिंहासन पर बैठ जाए तो, भीतर अंतर नहीं पड़ता है। अगर इस बात को खयाल में ले लें, तो फिर अपने भीतर अंतर को जरा देखते रहना चाहिए, कब-कब पड़ता है। और उसे धीरे-धीरे जागरूक होकर पहचानते जाना चाहिए।
एक आदमी ने गाली दी है और एक आदमी ने फूलमाला पहना दी है। भीतर इतनी छलांग से टेंपरेचर में अंतर पड़ता है—इतनी छलांग से-कि जिसका कोई हिसाब नहीं। उसे थोड़ा देखना चाहिए। और जिस दिन आपको फूलमाला और भेंट की गई गालियां, दोनों एक सी मालूम पड़ने लगें...। __ लाओत्से के साधना-सूत्रों में एक गुप्त सूत्र आपको कहता हूं, जो उसकी किताबों में उल्लिखित नहीं, लेकिन कानों-कान लाओत्से की परंपरा में चलता रहा है। वह सूत्र है लाओत्से की ध्यान की पद्धति का। वह सूत्र यह है। लाओत्से कहता है कि पालथी मार कर बैठ जाएं और भीतर ऐसा अनुभव करें कि एक तराजू है, बैलेंस, एक तराजू। उसके दोनों पलड़े आपकी दोनों छातियों के पास लटके हुए हैं और उसका कांटा ठीक आपकी दोनों आंखों के बीच, तीसरी आंख जहां समझी जाती है, वहां उसका कांटा है। तराजू की डंडी आपके मस्तिष्क में है। दोनों उसके पलड़े आपकी दोनों छातियों के पास लटके हुए हैं। और लाओत्से कहता है, चौबीस घंटे ध्यान रखें कि वे दोनों पलड़े बराबर रहें और कांटा सीधा रहे।
लाओत्से कहता है कि अगर भीतर इस तराजू को साध लिया, तो सब सध जाएगा।
लेकिन आप बड़ी मुश्किल में पड़ेंगे। जरा इसका प्रयोग करेंगे, तब आपको पता चलेगा। जरा सी श्वास भी ली नहीं कि एक पलड़ा नीचा हो जाएगा, एक पलड़ा ऊपर हो जाएगा। अकेले बैठे हैं, और एक आदमी बाहर से निकल गया दरवाजे से। उसको देख कर ही, अभी उसने कुछ किया भी नहीं, एक पलड़ा नीचा, एक ऊपर हो जाएगा।
लाओत्से ने कहा है कि भीतर चेतना को एक संतुलन! दोनों विपरीत द्वंद्व एक से हो जाएं और कांटा बीच में बना रहे।
लाओत्से का शिष्य लीहत्जू मर रहा था, मृत्युशय्या पर पड़ा था। लोग बहुत इकट्ठे थे अंतिम विदा के लिए। लीहत्जू लाओत्से की परंपरा के खास-खास लोगों में, दो-चार लोगों में एक है। दो ही लोगों में! च्वांगत्से और लीहत्जू उसके दो बड़े शिष्य हैं। लीहत्जू मर रहा है। लोग इकट्ठे हैं। कोई सवाल पूछता है, लीहत्जू जवाब देता है। लेकिन बीच में ही आंख बंद कर लेता है, फिर मुस्कुराता है, फिर जवाब देता है। फिर किसी ने पूछा कि लीहत्जू, यह वक्त कम है, समय थोड़ा है, मौत करीब मालूम पड़ती है, तुम बीच-बीच में आंख बंद मत करो, तुम हमारी पूरी बातों का जवाब दे दो।
लीहत्जू ने कहा कि तुम्हारी बातें तो ठीक हैं; तुमने जिंदगी भर ये सवाल पूछे और जिंदगी भर मैंने जवाब दिए, फिर भी तुम्हें कुछ सुनाई नहीं पड़ा। मरते वक्त मुझे मेरे तराजू पर तो ध्यान रखने दो।
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