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ताओ उपनिषद भाग २
इसलिए लोग अक्सर चमत्कृत होते दिखाई पड़ते हैं, कि बड़े आश्चर्य की बात है, जो आदमी इतना बड़ा सेवक था, वह सत्ता में पहुंच कर ऐसा विकृत हो गया! सत्ता सभी को खराब कर देती है।
ऐसा नहीं है। वह सेवक तभी तक था, जब तक कमजोर था। वह सेवक होना कोई भीतरी गुण न था, वह सिर्फ कमजोरी थी। सत्ता में पहुंचते ही पता चलता है कि वह आदमी असली क्या था। इसलिए जिस आदमी का असली चेहरा देखना हो, उसे सत्ता दिए बिना नहीं पता चल सकता। सत्ता मिलते ही उसे स्वतंत्रता मिलती है अब वही होने की, जो वह होना चाहता है। अब उसे दिखावा करने की कोई जरूरत नहीं है। इसलिए सत्ता नहीं करप्ट करती किसी को, व्यभिचारी नहीं बनाती; लेकिन सत्ता व्यभिचारी को मुक्त कर देती है प्रकट होने के लिए।
लाओत्से कहता है, ऐसा व्यक्ति ही इस योग्य है कि संसार का शासन उसे सौंपा जा सके, जिसके भीतर मैं विसर्जित हो गया। क्योंकि मैं और सत्ता का जोड़ हो जाए, तो व्यभिचार फलित होता है। अगर भीतर मैं खो जाए, तो सत्ता व्यभिचार पैदा नहीं कर सकती है। क्योंकि जो व्यभिचारी हो सकता है, वह मैं है, वह अहंकार है।
'और जो संसार को उतना ही प्रेम करे जितना स्वयं को, तो उसके हाथों में संसार की सुरक्षा सौंपी जा सकती है।'
लेकिन यहीं कठिनाई है। ऐसा व्यक्ति सत्ता न चाहे। और ऐसे व्यक्ति के हाथ में सत्ता सौंपी जा सकती है। . लाओत्से क्या कहना चाहता है? लाओत्से यह कहना चाहता है, जो सत्ता चाहे, उसके हाथ में सत्ता नहीं सौंपी जा सकती। जो आदर चाहे, उसके हाथ में आदर देना खतरनाक है। जो प्रतिष्ठा चाहे, उसे प्रतिष्ठा देना उसकी बीमारी को पानी सींचना है। प्रतिष्ठा उसे देना, जो प्रतिष्ठा न चाहे। और सत्ता उसे सौंप देना, जिसके भीतर सत्ता को पकड़ने और पीने वाला अहंकार न रह गया हो। तो ही...।
इस सूत्र के संदर्भ में दो-तीन बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं।
विगत ढाई हजार वर्षों में, लाओत्से के बाद, सारी दुनिया में सैकड़ों तरह की क्रांतियां हुईं; और सभी क्रांतियां असफल हो जाती हैं। हर क्रांति दावा करती है कि सत्ता अब ठीक हाथों में जाएगी। लेकिन सत्ता जिन हाथों में भी जाती है, वे गलत हाथ सिद्ध होते हैं। जरूर कहीं न कहीं मामला क्रांति का नहीं है। क्रांति से कोई संबंध नहीं है। क्योंकि सब क्रांतियां असफल हो गईं। अब तक कोई क्रांति सफल नहीं हो सकी। और होगी भी नहीं। क्योंकि लाओत्से का सूत्र कोई भी क्रांति पूरा नहीं कर पाती। सत्ता चाहने वाले के हाथ में ही सत्ता आती है।
इसलिए कुछ लोग तो इतने पीड़ित और परेशान हो गए, जैसे क्रोपाटकिन या बाकुनिन, वे कहते हैं कि अब सत्ता चाहिए ही नहीं, किसी के भी हाथ में नहीं। अराजकता चाहिए, अनार्की चाहिए। क्योंकि बहुत देख ली सत्ताएं, सभी सत्ताएं मंहगी पड़ जाती हैं। और सभी सत्ताओं को उलटने के लिए पुनः-पुनः क्रांति करनी पड़ती है। क्रांति से जिन सत्ताओं को निर्मित करते हैं, उनको भी मिटाने के लिए कल क्रांति करनी पड़ती है। जिन्हें आज बड़ी मेहनत से सिंहासन पर चढ़ाते हैं, कल उतनी ही मेहनत से उन्हें सिंहासन से उतारना पड़ता है।
और लोग ढाई हजार साल से-आगे का नहीं कहता, क्योंकि उसके पहले का इतिहास साफ नहीं है-ढाई हजार साल से दुनिया की जनता एक ही काम कर रही है। सही आदमियों को चढ़ाती है सिंहासन तक; सिंहासन पर पहुंचते ही पता चलता है कि गलत आदमी चढ़ गया, फिर उसे उतारना पड़ता है। यह वर्तुल चलता ही रहता है।
लाओत्से कहता है, यह वर्तुल क्रांतियों से मिटने वाला नहीं है। यह वर्तुल व्यक्तियों से मिटेगा, क्रांतियों से नहीं। लेकिन ऐसे व्यक्ति के हाथ में जिस दिन भी जगत की सत्ता हो सके किसी भी दिशा की, किसी भी आयाम की-उसी दिन सत्ता खतरनाक और मंहगी नहीं होती।
शायद परमात्मा के हाथ में सारे जगत की सत्ता इसीलिए मंहगी और खतरनाक नहीं है। क्योंकि वह इस भांति है, जैसे हो ही नहीं। परमात्मा की मौजूदगी कहीं पता चलती है? गैर-मौजूद होना ही उसकी मौजूदगी है। अनुपस्थित
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