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अलंकार-शून्य व्यक्ति ही शासक होने योग्य
आई? 'हू' बेमानी है, कौन का कोई मतलब नहीं है। अगर लाओत्से की ध्यान की पद्धति बनानी पड़े, तो पूछा जाएगा भीतर : व्हेयर एम आई? व्हेयर? कहां हूं मैं? मैं कौन हूं, इसमें यह तो मान ही लिया गया कि मैं हूं। अब रह गया कि कौन हूं, यह जानना है।
लाओत्से कहता है, पहले यह तो खोजो कि तुम हो? तो खोजो-कहां हो? एक-एक इंच अपने भीतर प्रवेश करो और एक-एक इंच पर पूछो कि कहां हूं?
और मजे की बात है, वह मैं कहीं भी नहीं पाया जाता। और जब आदमी अपने भीतर सब खोज लेता है-शरीर, मन, प्राण, आत्मा-और कहीं भी नहीं पाता कि मैं हूं, तब भी पाता तो है कुछ है। कुछ है, यह तो पाता है। लेकिन मैं को नहीं पाता। वह जो कुछ है, एक्स, अज्ञात, वह सागर है। और अगर हम पा लेते हैं कि मैं यह हूं, तो वह लहर है, चाहे वह कितनी ही गहरी हो।
कोई कहे मैं शरीर हूं, तो भी नास्तिक। कोई कहे मैं मन हूं, तो भी नास्तिक। कोई कहे मैं आत्मा हूं, तो भी नास्तिक। लाओत्से और बुद्ध के हिसाब से एक कदम और ः मैं हूं ही नहीं। सब कट जाए, नेति-नेति हो जाए। कुछ भी न बचे, तब जो बच रहता है! बच तो रहता ही है। उस कुछ अज्ञात का नाम नहीं है। और उस अज्ञात में प्रवेश करते ही फिर भय नहीं है। फिर कोई प्रलोभन भी नहीं है।
'इसलिए जो व्यक्ति संसार को उतना ही सम्मान दे, जितना स्वयं को...।'
कब? संसार को उतना ही सम्मान तभी दिया जा सकता है जितना स्वयं को, जब स्वयं का होना बिलकुल खो गया हो। स्वयं के रहते मैं सदा ही मूल्यवान रहूंगा। कोई कितना ही मूल्यवान हो, मैं भी खुद कहूं कि तुम मुझ से बहुत मूल्यवान, मैं तुम्हारे चरणों की धूल, तो भी मैं ही मूल्यवान रहूंगा। मेरा कोई भी वक्तव्य मेरे मूल्य का खंडन नहीं कर सकता। मेरा खुद का ही वक्तव्य कि मैं जमीन की धूल हूं तुम्हारे चरणों की, मेरे तुमसे ऊपर होने के आधार को मिटा नहीं सकता। मैं ऊपर रहूंगा ही। मैं का होना अनिवार्यतया ऊपर होना है। मैं है, तो सर्वोपरि है। वह कितनी ही घोषणाएं करे, उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। मैं की घोषणा अनिवार्यरूपेण सर्वोपरि घोषणा है।
तो किस दिन यह घटना घट सकती है जब कि मैं संसार को उतना ही सम्मान दूं जितना स्वयं को?
उसी दिन, जिस दिन मेरा मैं न हो। उस दिन संसार और मेरे बीच फासला न रहा। उस दिन ऐसा कहें कि मैं ही फैल कर सबके भीतर प्रकट होने लगा। या सब मेरे भीतर बढ़ कर प्रकट होने लगे। उस दिन मेरे और तू के बीच कोई दीवार न रही। उस दिन सब का होना ही मेरा होना है। उस दिन सम्मान हो सकता है सबका समान। उस दिन सम्मान हो सकता है, उतना ही जितना मैं अपने को दूं। जीसस ने कहा है, पड़ोसी को उतना ही प्रेम, जितना तुम स्वयं को करते हो। लेकिन जब तक स्वयं है, तब तक पड़ोसी को उतना ही प्रेम नहीं हो सकता। स्वयं मिटे, तो ही पड़ोसी को उतना ही प्रेम हो सकता है जितना मैं स्वयं को करता हूं।
'तो ऐसे व्यक्ति के हाथ में संसार का शासन सौंपा जा सकता है।'
बड़ी मुश्किल है। लाओत्से की व्यवस्था बड़ी कठिन है। लाओत्से कहता है, ऐसे व्यक्ति के हाथ में संसार का शासन सौंपा जा सकता है। ऐसे व्यक्ति के हाथ में शक्ति खतरनाक नहीं होगी। लेकिन ऐसा व्यक्ति शक्ति चाहता नहीं। और जैसे व्यक्ति शक्ति चाहते हैं, उनके हाथ में अनिवार्य रूप से खतरनाक होती है।
बहुत प्रसिद्ध उक्ति है बेकन की पावर करप्ट्स। शक्ति, सत्ता लोगों को व्यभिचारी बनाती है।
यह अधूरी है। शक्ति व्यभिचारी इसलिए बनाती है कि सिर्फ व्यभिचारी ही शक्ति को खोजते हैं। शक्ति करप्ट नहीं करती है, लेकिन करप्टेड शक्ति को खोजते हैं। हां, अगर आपके भीतर व्यभिचार है, तो शक्ति के बिना प्रकट नहीं हो सकता। इसलिए जब शक्ति मिल जाती है, तो व्यभिचार प्रकट होता है।
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