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ताओ उपनिषद भाग २
है। पीछे भी तुम कहोगे, तो मैं मान लूंगा। लेकिन आनंद ने कहा, मैं बचूंगा कहां? कहेगा कौन? अभी ही तय कर लेना उचित है। अभी मैं हूं।
वचन मांग लिए। बुद्ध ने वचन दे दिए; जीवन भर उन तीन वचनों का बुद्ध ने पालन किया। और बड़े आश्चर्य की बात है कि आनंद इसके बाद चालीस वर्ष तक बुद्ध के पीछे छाया की तरह रहा। बुद्ध के सर्वाधिक निकट वही था। उतना निकट कोई दूसरा व्यक्ति कभी नहीं रहा। फिर बुद्ध की मृत्यु हो गई। फिर बुद्ध के वचन संग्रहीत करने के लिए संघ बैठा। तो आनंद सर्वाधिक निकट बुद्ध के रहा था। सबसे ज्यादा प्रामाणिक वक्तव्य उसका ही था कि बुद्ध ने कब किससे क्या कहा। रात बुद्ध के कमरे में ही वह सोता था। चौबीस घंटे उनके साथ रहता था। ऐसी कोई भी घटना नहीं घटी थी चालीस वर्षों में, जो आनंद के सामने न घटी हो। सबसे ज्यादा प्रामाणिक आदमी वही था। लेकिन संघ ने आनंद को भवन के भीतर लेने से इनकार कर दिया, भिक्षुओं ने। उन्होंने कहा कि अभी आनंद को ज्ञान उपलब्ध नहीं हुआ। आनंद गिड़गिड़ाता है दरवाजे पर, लेकिन भिक्षुओं ने द्वार बंद कर दिए।
और अन्य भिक्षुओं ने कहा कि आनंद को ज्ञान उपलब्ध नहीं हुआ। कारण? आनंद ने पूछा, कारण? तो पता चला कि वे जो तीन वचन तुमने बुद्ध से लिए थे, वह तुम्हारे अहंकार की जरा सी रेखा-जरा सी रेखा! मिटने के पहले भी, मिटने के पूर्व जरा सी तुमने जो रेखा खींच ली थी, वह बाधा बन गई है।
और आनंद ने स्वीकार किया कि वह बाधा है और मैं योग्य नहीं कि भीतर आ सकू। जब मैं योग्य हो जाऊंगा, तब मैं द्वार खटखटाऊंगा।
चौबीस घंटे आनंद ध्यान में बैठा रहा। भीतर सभा चलती रही, वक्तव्य संगृहीत किए जाते रहे। चौबीस घंटे बाद आनंद ने द्वार खटखटाया। दरवाजा खोल दिया गया। पूछा भिक्षुओं ने, आनंद, तुम बिलकुल बदल कर आ रहे हो! तुम्हारे चेहरे की आभा और, तुम्हारे पैर की भनक और, तुम्हारे चलने का ढंग और। चालीस साल से तुम्हें देखा है, लेकिन यह तुम आदमी ही दूसरे हो!
तो आनंद ने कहा, इस ध्यान में मुझे पता चला कि कैसा छोटा भाई, कैसा बड़ा भाई! कैसा वचन, कैसा आश्वासन! मेरा समर्पण भी सशर्त था। उसमें जरा सी शर्त थी, एक कंडीशन थी! आज मैंने क्षमा मांग ली है। और आज मैंने वह शर्त छोड़ दी है। और आनंद ने कहा कि अब मेरा कोई आग्रह नहीं है। भीतर आने दो तो ठीक, भीतर न आने दो तो ठीक। मैं बाहर ही बैठा रहूंगा।
__ तो संघ ने कहा कि अब तुम्हें भीतर आने में कोई बाधा न रही। वह तुम्हारा पहले आग्रह–कि मुझे भीतर लो, क्योंकि मैं ही प्रामाणिक व्यक्ति हूं, चालीस साल मैं ही निकट था उसी कारण हमें दरवाजे बंद करने पड़े थे। अब तुम भीतर आ सकते हो, क्योंकि बाहर और भीतर में अब कोई फर्क नहीं है।
समर्पण भी अगर शर्त से हो, समर्पण में भी अगर कृत्य हो, तो मालिक तो मैं ही बना रहता हूं। यह जो मेरा होना है, इसके द्वारा समर्पण नहीं होता। यह नहीं हो, तो जो होता है, उसी का नाम समर्पण है।
लाओत्से कहता है कि यह मेरा होना ही मेरे सारे दुख की जड़ है।
लेकिन कैसे, इसे मिटाएं कैसे? बहुत लोग इसे मिटाने की कोशिश करते हैं। मिटा तो नहीं पाते, यह और मजबूत हो जाता है। जो है ही नहीं चीज, उसे मिटाया नहीं जा सकता। एक बात पक्की समझ लें : अगर हो, तो मिटाया भी जा सके; जो नहीं है, उसे मिटाया नहीं जा सकता। जो मिटाने चलेगा, वह भूल में पड़ेगा। उसे जाना जा सकता है, खोजा जा सकता है-कहां है?
महर्षि रमण के ध्यान की पद्धति थी, जिसमें वे साधकों को कहते थे, पूछो : मैं कौन हूं? हू एम आई? अगर हम लाओत्से की ध्यान की पद्धति बनाना चाहें, तो उसमें हमें कहना पड़ेगा: मैं कहां हूं? व्हेयर एम
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