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अलंकार-शुन्य व्यक्ति ही शासक ठोने योग्य
फिर भी होना तो है! जब मैं कहता हूं मैं नहीं हूं, तब भी होना तो है। पर उस होने का मैं से कोई जोड़ नहीं है। जब मैं कहता हूं लहर नहीं है, तब भी लहर तो है। लेकिन उस लहर का लहर होने का कोई आग्रह नहीं है। वह सागर है। अगर एक लहर खोज में निकले, अपने भीतर जाए और पता लगाए कि मैं हूं? तो जल्दी ही पाएगी कि लहर तो खो गई, सागर मिल गया। जब भी कोई अपने भीतर प्रवेश करता है, तो बहुत जल्दी पाता है कि व्यक्ति तो खो गया और परमात्मा मिल गया।
लाओत्से उसे परमात्मा का नाम भी नहीं देता। क्योंकि वह नाम भी आदमी की भाषा में बहुत जूठा हो गया है। और हमने इतने-इतने ओंठों से परमात्मा का नाम लिया है, और इतनी-इतनी नासमझियों से उस नाम को जोड़ा है और उस नाम के लिए हमने इतने उपद्रव किए हैं कि लाओत्से चुप ही रह जाता है, परमात्मा का नाम नहीं लेता। वह कहता है, इतना ही जान लो कि तुम नहीं हो, तो फिर तुम्हें प्रशंसा भी नहीं छुएगी। क्योंकि किसकी प्रशंसा? फिर तुम्हें निंदा भी नहीं छुएगी। क्योंकि किसकी निंदा? फिर तुम्हें जीवन भी नहीं छुएगा। किसका जीवन? तुम अछूते, अस्पर्शित सागर के साथ एक हो जा सकोगे।
जब हम अहंकार को ही अपनी आत्मा नहीं मानते, तो फिर भय किस बात का है? भय का अर्थ हुआ, अपने को आत्मा, अहंकार, अस्मिता, ईगो, अपने को अलग-थलग मानना ही भय है।
'इसलिए जो व्यक्ति संसार को उतना ही सम्मान दे, जितना कि स्वयं को...।'
और यह कब होगा? यह तभी होगा, जब मेरे भीतर कोई अहंकार न हो, कोई आत्मा का भाव न हो। अगर मैं हूं, तो मैं आपको उतना ही सम्मान नहीं दे सकता जितना अपने को। क्यों?
नीत्शे ने कहा है और ठीक कहा है। अजीब से शब्दों में कहा है, लेकिन सच कहा है। नीत्शे ने कहा है कि अगर कहीं भी कोई ईश्वर है, तो मुझसे नंबर दो ही हो सकता है। क्योंकि मैं अपने से ऊपर किसी को कैसे रख सकता हूँ?
यह बहुत मजेदार बात है। आप चाहें भी, तो भी नहीं रख सकते। आप चाहें भी किसी को अपने से ऊपर रखना, तो भी नहीं रख सकते हैं। उपाय नहीं है। भीतरी असुविधा है। और अगर आप रख भी लें किसी को अपने से ऊपर, तो भी वह आपके द्वारा ही ऊपर रखा गया है। और जिसके द्वारा ऊपर रखा गया है, वह सदा ऊपर रह जाता है। अगर मैं किसी के चरणों में जाकर सिर भी रख दूं और कहूं कि मैं समर्पण करता हूं सब अपना, तो भी समर्पण मैं ही करता हूं। समर्पण का मालिक मैं हूं। समर्पण मेरा कृत्य है। और कल अगर मैं चाहूं, तो अपना पूरा समर्पण वापस ले सकता हूं। कौन रोकेगा? तो जिसके चरणों में मैंने अपना सिर भी रखा है, वह भी मेरा ही निर्णय है। अंततः मैं ही निर्णायक हूं। और कल सिर उठा लूं, तो कोई उपाय तो नहीं है रोकने का। समर्पण में भी संकल्प तो मेरा है। तो मैं किसी को, चरणों में सिर रख कर भी, अपने से ऊपर नहीं रख सकता। इसकी दुविधा भीतरी है। यह असंभावना है।
लेकिन क्या इसका यह अर्थ हुआ कि कभी समर्पण इस जगत में घटित नहीं हुआ है?
समर्पण घटित हुआ है। लेकिन वह तब घटित होता है, जब मुझे पता चलता है कि मैं हूं ही नहीं। जब तक मैं हूं, तब तक तो समर्पण भी मेरा संकल्प है।
बुद्ध के बड़े भाई, चचेरे भाई आनंद ने बुद्ध से दीक्षा ली। तो बुद्ध से कहा कि दीक्षा के बाद तो फिर मैं नहीं बचूंगा। तुम्हारी आज्ञा मेरे लिए अंतिम आज्ञा होगी। लेकिन अभी अज्ञानी हूं, अभी तुम्हारा बड़ा भाई हूं। दीक्षा के पहले तुमसे दो-चार वचन ले लेता हूं। दीक्षा के पहले, बड़े भाई की हैसियत से छोटे भाई के दिए गए वचन हैं; इनका तुम पालन करना। और उसने तीन वचन ले लिए बुद्ध से। बहुत प्यारी घटना है। और जिसने दीक्षा ली थी, आनंद ने, उनके चचेरे भाई ने, वह बहुत अदभुत आदमियों में से एक था। बुद्ध ने उससे कहा, इतनी भी क्या जल्दी
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