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________________ ताओ उपनिषद भाग २ 160 उसमें सिद्ध किया है कि कुछ भी नहीं है। न मैं हूं, न तुम हो, न संसार है, कुछ भी नहीं है । स्वभावतः नागार्जुन बड़ी दिक्कत में पड़ गया; क्योंकि उसको गलत करना तो बहुत आसान है। कोई भी आकर गलत कर देता कि अगर कुछ भी नहीं है, तो यह किताब किसके लिए लिखी है ? अगर तुम भी नहीं हो, तो कौन लिखता है ये बातें ? कौन विवाद करता है ? और यह सुनने वाला भी नहीं है, तो तुम किसको समझा रहे हो ? नागार्जुन की कठिनाई है। नागार्जुन जो कह रहा है, वह एक गहन अनुभव है। वह असल में यह कह रहा है कि व्यक्तिशः कोई भी नहीं है। एज इंडिविजुअल नथिंग एक्झिस्ट्स – व्यक्तिशः कुछ भी नहीं है। लहर की भांति कुछ भी नहीं है; सागर है। लेकिन जब हम कहते हैं सागर है, तब सागर की भी सीमा बन जाती है। इसलिए नागार्जुन कहता है, जो है, उसके लिए कोई भी शब्द हम उपयोग करेंगे तो उसकी सीमा बन जाएगी। तो नागार्जुन कहता है हम, जो-जो नहीं है, वह बता देंगे; और जो है, उसे छोड़ देंगे तो नहीं-नहीं-नहीं को जान लेना, पहचान लेना। और जब नहीं की पूरी यात्रा समाप्त हो जाए, तो जो बच रहे, जो बच रहे - दि रिमेनिंग – वही है, बाकी कुछ भी नहीं है। लाओत्से कहता है, हमारा भय क्या है ? हमें निंदा अप्रीतिकर क्यों लगती है ? और प्रशंसा प्रीतिकर क्यों लगती है? प्रशंसा का मतलब है, कोई कह रहा है कि तुम बड़ी लहर हो । निंदा का अर्थ है, कोई कह रहा है, क्षुद्र सी लहर! और लाओत्से कह रहा है कि तुम हो ही नहीं । लहर तुम हो ही नहीं । जब तक तुम लहर मानोगे अपने को, तब तक प्रशंसा सुख देती मालूम पड़ेगी; निंदा दुख देगी। मित्र होंगे, जो तुम्हारी लहर को बचाएं। शत्रु होंगे, जो तुम्हारी लहर को मिटाएं। बुद्ध को भूल से अंतिम जीवन के क्षणों में किसी ने जहर दे दिया— भूल से । किसी गरीब आदमी ने निमंत्रण किया था। और बिहार में कुकुरमुत्ते को लोग बरसात में इकट्ठा कर लेते हैं। लकड़ी पर गीली लकड़ी पर जो फूल उग आते हैं, उनको इकट्ठा कर लेते हैं, सुखा लेते हैं। कभी-कभी वे विषाक्त हो जाते हैं। गरीब आदमी ने निमंत्रण दिया था। विषाक्त फूल थे; बुद्ध ने खा लिए । जहर था कडुवा; लौट कर आए, तो खून में जहर फैल गया। फूड पायजन से बुद्ध की मृत्यु हुई। मित्रों ने कहा कि आप कह तो देते कि कड़वा है ! बुद्ध ने कहा, कड़वा तो था, लेकिन कहता कौन? लोगों ने कहा, ये बातें मत करिए। यह जीवन और मृत्यु का सवाल है! बुद्ध ने कहा, अगर मैं होता, तो मर भी सकता था। मैं हूं ही नहीं। मैं हूं ही नहीं, इसलिए मृत्यु का कोई सवाल नहीं है। अगर हैं, तो मरेंगे। मगर क्या इसे हम मान लें ? यहीं सारी कठिनाई है। मान भी सकता है कोई आदमी । करोड़ों-करोड़ों बौद्ध बुद्ध को मान कर ही चल रहे हैं कि नहीं है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे कोई बुद्धत्व उपलब्ध नहीं होता। कितने करोड़ हैं! करोड़ों बौद्ध हैं जमीन पर, वे मान कर ही चल रहे हैं कि नहीं है। वे ऐसे ही मान कर चल रहे हैं कि नहीं है, जैसे कोई मान कर चल रहा है कि है । यह नहीं है और है, दोनों मान्यताएं हैं। इनका कोई मूल्य नहीं । जानना है। प्रवेश करें भीतर, खोजें: मैं हूं ? जैसे-जैसे खोज गहरी होगी, सतह पर तो लगता है मैं शरीर हूं। आत्मवादी लोगों को समझाते हैं कि अपने को शरीर मत मानो, समझो कि तुम आत्मा हो । एक कदम ले जाते हैं। मनसविद हैं, या मन तक मानने वाले लोग हैं, वे कहते हैं, आत्मा तो कुछ पता नहीं चलती। शरीर नहीं है, यह ठीक मैं हूं, यहां तक बात जाती मालूम पड़ती है। बुद्ध आखिरी कदम उठाते हैं। लाओत्से भी आखिरी कदम उठाता है | मनुष्य जाति के अत्यधिक हिम्मतवर लोग हैं। साधारणतः आदमी मानता है मैं शरीर हूं। उसको हम नास्तिक कहते हैं। जो मानता है मैं शरीर नहीं हूं, आत्मा हूं, उसको हम आस्तिक कहते हैं । बुद्ध कहते हैं, जो मानता है कि मैं हूं, उसे अभी कुछ पता ही नहीं— चाहे शरीर, चाहे आत्मा। जो जानता है कि मैं हूं ही नहीं !
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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