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अहंकार-शून्य व्यक्ति ही शासक होने योग्य
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लहर देखेगी चारों तरफ : लहरें गिर रही हैं, मिट रही हैं, समाप्त हो रही हैं। कब्रें बनती जा रही हैं उसके चारों
तरफ। वह भी जानती है कि मेरी कब्र करीब है, मैं भी मिटने के करीब हूं। जब लहर आकाश को छूने के उद्दाम वेग से भरी है, तब भी उसे पता है कि पैर खिसके जा रहे हैं, जमीन मिटी जा रही है, जल्दी ही कब्र मेरी बन जाएगी। चारों तरफ कब्रें बनती चली जा रही हैं। अभी जो लहर आकाश छूती मालूम पड़ती थी, वह खो गई और मिट गई। मैं भी मिदूंगी। यह लहर को मिटने का जो डर है, यह मौत का जो भय है, यह किस कारण है ?
यह इस कारण नहीं है कि लहर मिटेगी। यह इस कारण है कि लहर ने अपने को सागर से अलग जाना। अगर लहर अपने को सागर से एक जाने, तो फिर कैसा मिटना ? फिर तो जब लहर नहीं थी, तब भी थी; और जब नहीं रहेगी, तब भी होगी। फिर तो यह बीच का जो खेल है, यह खेल ही हो गया। इसे गंभीरता से लेने की कोई जरूरत न रही । लहर सागर है, अगर ऐसा जानें, तो फिर कोई भय नहीं है।
भय तो एक ही बात का है कि मैं अलग हूं। तो फिर मुझे बचाना पड़ेगा, इंतजाम करना पड़ेगा । लड़ना पड़ेगा मृत्यु से । और लड़-लड़ कर भी तो आदमी मिट ही जाएगा। बचने का तो कोई उपाय नहीं है।
तो लाओत्से कहता है, 'इसका क्या अर्थ है कि सम्मान और अपमान, दोनों ही स्वयं के भीतर हैं? हम इस कारण भयभीत होते हैं, क्योंकि हमने अहंकार को ही अपना होना समझ लिया है।'
अच्छा हो कि हम इसको कहें, अंग्रेजी का वाक्य ज्यादा बेहतर है: वी हैव फियर्स, बिकाज वी हैव ए सेल्फ । हम भयभीत होते हैं, क्योंकि हमें लगता है कि हम आत्मा हैं। व्हेन वी डू नॉट रिगार्ड दि सेल्फ एज दि सेल्फ - और जब हम आत्मा को आत्मा नहीं मानते, जब मैं मैं को मैं नहीं मानता - व्हाट हैव वी ट् फियर ? और तब भय कहां ? फिर भयभीत होने की क्या जगह रही? मैं हूं, यही हमारे भय का आधार है।
क्यों? क्योंकि अगर मैं हूं, तो मुझे मेरे मिटने का डर समा ही जाएगा। अगर मैं हूं, तो नहीं हो सकता हूं, यह बात मौजूद हो गई। इसे थोड़ा समझें। अगर मैं हूं, तो मैं नहीं भी हो सकता हूं। फिर भय पकड़ेगा।
बुद्ध कहते हैं कि तुम नहीं ही हो, ऐसा जान लो; फिर इस जगत में कोई भय नहीं है। क्योंकि मिटने का ही भय एकमात्र भय है । और सारे भय उससे ही पैदा होते हैं, उसकी ही उप-उत्पत्तियां हैं, उसके ही शाखा - पल्लव हैं। बुद्ध कहते हैं कि तुम हो ही नहीं, इसे जान लो । फिर कैसा भय ? और लाओत्से भी यही कहता है : आत्मा है, अस्मिता है, अहं है, मैं हूं, तो भय है। और अगर तुम नहीं ही हो, तो फिर कैसा भय ?
यहां फिर एक बात खयाल में ले लें। यह क्या हम मान लें कि मैं नहीं हूं ?
मानने से कुछ भी न होगा। कौन मानेंगा ? जो मानेगा, वह तो पीछे बचा रहेगा। अगर मैं मान ही लूं कि मैं नहीं हूं, तो भी मैं हूं। कौन मानता है? यह भी मेरी मान्यता है।
इसलिए बुद्ध ने कहा, मानने की बात नहीं है। इसे खोजो कि सच में तुम हो ? इसे खोजो, कहां हो तुम? शरीर में हो, तो शरीर में खोजो । विचार में हो, तो विचार में खोजो। भाव में हो, तो भाव में खोजो । खोजो भीतर अथकः कहां हो तुम? और बुद्ध कहते हैं, तुम खोज-खोज कर पाओगे कि तुम खो गए, तुम नहीं हो।
यह न होना मान्यता और विश्वास और सिद्धांत नहीं है । यहीं भूल हुई। भारत के पंडित को बुद्ध को समझने भूल हुई, क्योंकि भारत के पंडित ने कहा, यह सिद्धांत है बुद्ध का कि आत्मा नहीं है। तो भारत के पंडित ने कहा कि हम सिद्ध कर सकते हैं कि आत्मा है । बुद्ध के लिए यह सिद्धांत नहीं था, यह गहन अनुभूति थी । अगर यह सिद्धांत है, तो यह गलत है।
नागार्जुन ने बुद्ध के एक शिष्य ने, मूल माध्यमिक कारिका नाम का अपना शास्त्र लिखा । अनूठा है। संभवतः पृथ्वी पर वैसी दूसरी कोई किताब नहीं है। नागार्जुन जैसा आदमी भी खोजना पृथ्वी पर दुबारा मुश्किल है। नागार्जुन ने