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ताओ उपनिषद भाग २
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तो वह बीच-बीच में आंख बंद करके अपना तराजू देख लेता है कि वे दोनों पलड़े बराबर हैं या नहीं। और हंस लेता है कि बिलकुल ठीक। फिर वह जवाब देने लगता है। तो एक आदमी ने पूछा कि इस वक्त, तुम्हारा तराजू तो सदा से सध गया है, अभी जांच का कोई मौका भी कहां है? न कोई तुम्हें गाली दे रहा है, न कोई सम्मान कर रहा है। मौत करीब है और हम जिज्ञासु हैं।
लीजू ने कहा कि वही, तुम्हारे चेहरे मेरे पहचाने हुए हैं। पचास साल, साठ साल से कोई मुझे सुनता है। मैं अपने तराजू को देखता हूं कि कोई हलचल तो नहीं होती कि पचास साल से जो बहरे सुन रहे हैं, वे फिर पूछ रहे हैं, उनको मैं फिर जवाब दे रहा हूं। कहीं भीतर मेरा तराजू तो नहीं हिलता इस बात से कि इन नासमझों को समझाना कि नहीं समझाना। तराजू नहीं हिलता है, मुझे बड़ी हंसी आती है। फिर मैं तुम्हें जवाब दे देता हूं। लेकिन तुम्हारी तरफ देखता हूं, तो मुझे खयाल आता है— एक दफे तराजू को फिर देखूं, वह हिलता तो नहीं है!
जीवन में सुख हो या दुख, सम्मान या अपमान, अंधेरा या उजाला, भीतर के तराजू को साधते चला जाए कोई, तो एक दिन उस परम संतुलन पर आ जाता है, जहां जीवन तो नहीं होता, अस्तित्व होता है; जहां लहर नहीं होती, सागर होता है; जहां मैं नहीं होता, सब होता है।
इतना ही आज । लेकिन पांच मिनट बैठें; कीर्तन संन्यासी करेंगे, उनके साथ सम्मिलित हों ।
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