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अळंकार-शुन्य व्यक्ति ही शासक होने योग्य
लाओत्से कहता है, सुख में देख लेना दुख को, जन्म में देख लेना मृत्यु को, सम्मान में अपमान को। विपरीत की झलक को खोजना। मिल जाएगी। वहीं मौजूद है, छिपी है। जरा आंख गड़ा कर देखने की बात है, जरा ध्यानपूर्वक खोजने की बात है। सुख दुख हो जाएगा। फूल के पीछे कांटा निकल आएगा। फिर छोड़ना नहीं पड़ेगा। छोड़ने की बात ही लाओत्से नहीं करता। छोड़ने की भी कोई बात करनी है! अगर फूल में कांटा निकल आए, तो छूट गया।
इसलिए पहली बात तो यह समझ लें कि सुख की कामना का त्याग ही दुखों से निवृत्ति है, ऐसा नहीं। सुख को दुख जान लेना ही-दुखों से निवृत्ति है, ऐसा नहीं-सुख-दुख दोनों से निवृत्ति है।
हमारा मन बहुत अदभुत है। हम सुख को भी छोड़ने को तैयार हो सकते हैं, अगर दुख से निवृत्ति मिलती हो। लेकिन ध्यान रखें, दुख से निवृत्ति अकेली नहीं होती, सुख और दुख दोनों से निवृत्ति होती है। दुख को छोड़ने को तो कोई भी तैयार है। दुख को छोड़ने के लिए कोई प्रश्न ही नहीं है। हम सुख को भी छोड़ने को तैयार हो जाते हैं कभी, अगर दुख से निवृत्ति मिलती हो। लेकिन वह भी दुख को ही छोड़ने की चेष्टा है। सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं—ऐसा जो जानेगा, वह यह भी जान लेगाः या तो दोनों बचेंगे, या दोनों छूट जाएंगे। निवृत्ति होगी, तो दोनों से; और प्रवृत्ति रहेगी, तो दोनों की।
तीसरी बात, 'मुझे तो इतना ही जानना है कि मेरा पनर्जन्म न हो।'
लेकिन क्यों? पुनर्जन्म क्यों न हो? क्योंकि जीवन में दुख है, जीवन में पीड़ा और संताप है, इसलिए पुनर्जन्म न हो? सुख की दौड़ जारी ही बनी रहती है। और पुनर्जन्म न हो, यह भविष्य की आकांक्षा हो गई। और वासना सदा ही भविष्य में होती है। किसी भी तरह की वासना हो, सदा भविष्य में होती है। कल मुझे कुछ हो! वासना सदा कल के बाबत होती है।
कभी आपने सोचा कि वासना वर्तमान में हो नहीं सकती। वासना का वर्तमान में होने का उपाय नहीं है। क्योंकि वासना को जगह चाहिए, स्पेस चाहिए। वर्तमान में कोई जगह तो नहीं होती, एक क्षण आपके हाथ में होता है। वह इतना कम होता है और वासना आपके पास इतनी होती है, उसमें नहीं फैल सकती। इसलिए वासना भविष्य खोजती है-कल, परसों, आने वाले वर्ष। लेकिन यह तो हद्द हो गई वासना की आने वाला जन्म! तो बहुत भविष्य का विस्तार है।
न; आने वाला जन्म न हो, यह भी वासना है। और जब तक वासना है, तब तक जन्म होता ही रहेगा।
यही दुविधा है धर्म की। धर्म की गहरी से गहरी दुविधा यही है कि हम जब भी धर्म को समझते हैं, तब तत्काल अपनी वासनाओं की भाषा में रूपांतरित कर लेते हैं। धर्म ऐसा नहीं कहता कि पुनर्जन्म न हो, इसकी कोशिश करो। धर्म ऐसा कहता है कि जीवन क्या है, इसे समझ लो, तो पुनर्जन्म नहीं होगा। वह सिर्फ कांसीक्वेंस है, परिणाम है। फल नहीं, परिणाम! फल की तो कामना करनी होती है, परिणाम की कामना नहीं करनी होती। कुछ और करना होता है, परिणाम घटित हो जाता है।
बुद्ध का पुनर्जन्म नहीं होता; इसलिए नहीं कि बुद्ध जीवन भर यह चेष्टा करते रहे कि मेरा पुनर्जन्म न हो। अगर यह चेष्टा होती, तो बुद्ध का पुनर्जन्म होता ही। क्योंकि जिसका मन भविष्य में दौड़ रहा है, उसका मन वासना में दौड़ रहा है। अगर ठीक से समझें, तो भविष्य का कोई अस्तित्व जगत में नहीं है-सिवाय मनुष्य की वासना के। भविष्य समय का हिस्सा नहीं है, मनुष्य की वासना का हिस्सा है। इसलिए जब भी कोई व्यक्ति वासनाशून्य हो जाता है, उसके लिए भविष्य मिट जाता है। भविष्य ही नहीं, समय ही मिट जाता है।
जीसस से कोई पूछता है, तुम्हारे स्वर्ग में सबसे खास बात क्या होगी? तो जीसस कहते हैं, देयर शैल बी टाइम नो लांगर-वहां समय नहीं होगा।
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