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ताओ उपनिषद भाग २
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लाओत्से यह नहीं कह रहा है। मेरा भी अभिप्राय यह नहीं है। हाथ में कंकड़-पत्थर हैं। लाओत्से कहता है, जानो कि ये कंकड़-पत्थर हैं, पहचानो कि ये पत्थर हैं | लाओत्से नहीं कहता कि त्यागो। क्योंकि त्याग की बात उठाते ही प्रश्न उठेगा, क्यों ?
लेकिन हाथ में कंकड़-पत्थर हैं, उन्हें मैं हीरे-जवाहरात समझ रहा हूं। हीरे-जवाहरात समझ रहा हूं, इसलिए पकड़े हुए हूं। अगर कंकड़-पत्थर दिख जाएं, तो उन्हें मुझे छोड़ना नहीं पड़ेगा, मेरी मुट्ठी खुल जाएगी। उन्हें छोड़ने के लिए मुझे रंच मात्र भी चेष्टा नहीं करनी पड़ेगी। उनके छोड़ने की नई वासना भी नहीं बनानी पड़ेगी कि इन्हें छोडूं, त्याग करूं। नहीं, कोई प्रयत्न नहीं होगा। अप्रयास, एफर्टलेसली, निष्प्रयत्न, पत्थर पत्थर दिखाई पड़ जाए, तो मुट्ठी खुल जाएगी। पत्थर नीचे गिर जाएगा। और अगर पत्थर इस भांति नीचे गिरा हो, तो क्या मैं पीछे किसी से कह सकूंगा कि मैंने पत्थरों का त्याग कर दिया ? अगर पत्थर ही थे, तो त्याग का कोई सवाल न रहा। और अगर मैं पीछे कहता हूं कि मैंने त्याग कर दिया, तो मुझे वे पत्थर अभी भी स्वर्ण ही थे, हीरे-जवाहरात ही थे।
भोगी और त्यागी की दृष्टि में बहुत फर्क होता नहीं । भोगी और त्यागी एक-दूसरे की तरफ पीठ करके खड़े रहते हैं, उनकी दृष्टि में कोई फर्क नहीं होता । भोगी भी मानता है कि हीरे-जवाहरात हैं, इसलिए पकड़े हुए हूं । त्यागी भी मानता है कि हीरे-जवाहरात हैं, इसलिए छोड़ रहा हूं। अगर हीरे-जवाहरात नहीं हैं, तो छोड़ने का कोई मूल्य नहीं रह गया। लेकिन त्यागी भी कहता फिरता है कि मैंने कितना त्याग किया । त्यागी भी हिसाब रखता है उतना ही, जितना भोगी रखते हैं। भोगी हिसाब रखता है, कितने लाख मेरे पास हैं । त्यागी हिसाब रखता है, कितने लाख मैंने छोड़े। लेकिन वे लाख अभी लाख हैं, इसमें कोई भेद नहीं है। मूल्यवान हैं, इसमें भी कोई भेद नहीं है ।
बल्कि सच तो यह है कि भोगी कभी भी वस्तुओं को उतना मूल्य नहीं देता, जितना त्यागी देता है - तथाकथित त्यागी। क्यों? क्योंकि भोगी तो पीड़ित भी रहता है मन में कि वस्तुओं को पकड़े हूं, भोग रहा हूं, अज्ञानी हूं, पापी हूं । त्यागी भी वस्तुओं को ही भोगता है, त्याग के नाम से । क्या-क्या उसने छोड़ा है, वह उसके अहंकार का हिस्सा हो जाता है। लेकिन अब पाप का अब अहंकार को चोट पहुंचने का भी कोई कारण नहीं । त्यागी के पास जो सिक्के हैं, वे और भी चमकदार हो जाते हैं। भोगी के सिक्के तो चोर भी चुरा ले, त्यागी के सिक्के कोई भी चुरा नहीं सकता। भोगी की संपदा में तो कोई भागीदार भी बन जाए, त्यागी की संपदा में कोई भागीदार नहीं बन सकता । त्यागी की संपदा बहुत सुरक्षित है।
नहीं, लाओत्से का यह अर्थ नहीं है कि सुख की कामना का त्याग करें। लाओत्से कह रहा है कि सुख क्या है, इसे जानें। जानते ही सुख छूट जाता है, त्याग हो जाता है। जो त्याग करते हैं, वे अज्ञानी हैं। जिनसे त्याग हो जाता है, वे ज्ञानी हैं।
ज्ञानियों ने कभी भी कोई त्याग नहीं किया है। यह सुन कर थोड़ी कठिनाई होगी मन को। क्योंकि हमारे सोचने का ढंग यह हो गया है कि हम सोचते हैं, त्याग करने से आदमी ज्ञानी होता है। बात उलटी है, ज्ञानी होने से त्याग 'घटित होता है । ज्ञानियों ने त्याग कभी नहीं किया । ज्ञानियों से त्याग होता है सहज ।
इसलिए उसकी कोई पीछे रूप-रेखा भी नहीं छूट जाती, कोई घाव भी नहीं छूट जाता। जैसे सूखा पत्ता वृक्ष से गिरता है, ऐसे ज्ञानी के पास जो व्यर्थ है, वह गिर जाता है। सूखे पत्ते के गिरने की खबर वृक्ष को होती ही नहीं; क्योंकि घाव कोई छूटता नहीं। पता ही नहीं चलता, कब पत्ता गिर गया।
लेकिन कच्चा पत्ता तोड़ें वृक्ष से, तो वृक्ष को भी चोट पता चलती है। जिसको भी त्याग का पता चलता हो, जान लेना कि अभी वह त्याग की स्थिति में पहुंचा नहीं था। जिसे खयाल भी आता हो कि मैंने त्याग किया, समझ लेना, अभी भोग के वर्तुल से बाहर वह नहीं हुआ है।