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ल के सूत्र के संबंध में एक प्रश्न है। प्रश्न महत्वपूर्ण है, मात्र जिज्ञासा के कारण नहीं, बल्कि साधना की दृष्टि से भी।
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पूछा , सुख की कामना का त्याग ही दुरवों से निवृत्ति हैं। सुनव का, सम्मान का, जीवन का चुनाव हमारे हाथ में हैं। दुरव, अपमान तथा मृत्यु परिणाम मात्र है, उनसे बचना हमारे बस की बात नहीं हैं। जीवन का चुनाव हमारे हाथ में है, यह कैसे संभव है? यह जानना चाहता हूं। मुझे इतना ही जानना है कि मेरा पुनर्जन्म न हो, यह मेरे हाथ में कैसे हूँ?
इस संबंध में दो-तीन बातें खयाल में ले लेनी चाहिए। पहली तो बात यह,
सुख की कामना का त्याग, ऐसा मैंने नहीं कहा। कल के सूत्र को समझाते समय आपकी बहुतों की समझ में ऐसा ही आया होगा कि मैंने कहा है, सुख की कामना का त्याग। ऐसा मैंने नहीं कहा, ऐसा लाओत्से का प्रयोजन भी नहीं है। ऐसा बुद्ध और महावीर का भी अर्थ नहीं है। ऐसा क्राइस्ट का भी अभिप्राय नहीं है। लेकिन क्राइस्ट हों, कि बुद्ध, कि लाओत्से, जब भी वे इस तरह की बात कहते हैं, तो हमारी समझ में यही आता है। तो पहली बात तो यह समझ लें कि बुद्ध क्या कहते हैं, वह अक्सर हमारी समझ में नहीं आता। और जो हमारी समझ में आता है, वह अक्सर बुद्ध का कहा हुआ नहीं होता।
सुख की कामना का त्याग, ऐसा लाओत्से का अभिप्राय नहीं है। सुख को दुख की तरह जान लेना, ऐसा लाओत्से का अभिप्राय है। इन दोनों में फर्क है। क्योंकि त्याग भी आदमी तभी करता है, जब कुछ मिलने का प्रयोजन हो। त्याग भी एक सौदा है। और त्याग के गहरे में भी लोभ छिपा है।
एक आदमी संसार का त्याग कर सकता है मोक्ष पाने के लिए। लेकिन उस आदमी से कहो, मोक्ष है ही नहीं, मोक्ष मिलेगा नहीं; फिर संसार का त्याग? फिर संसार का त्याग असंभव है। एक आदमी सुख का त्याग कर सकता है आनंद पाने के लिए। लेकिन सुख का त्याग आनंद पाने के लिए सुख का त्याग ही नहीं है। क्योंकि आनंद में हमारी समस्त वासना पुनः शेष रह गई; सिर्फ और नए आयाम में प्रवेश कर गई। सुख का त्याग नहीं; सुख दुख है, ऐसा जान लेना। और जब कोई ऐसा जान लेता है कि सुख दुख है, तो त्याग करना नहीं पड़ता, त्याग हो जाता है।
त्याग करना और त्याग हो जाना, बुनियादी रूप से भिन्न बातें हैं। जो करता है, वह तो लोभ के कारण ही करता है, किसी और सुख की कामना में ही करता है। इसलिए कर ही नहीं पाता। लेकिन हो जाए, तब फिर बिना कामना के हो जाता है। मेरे हाथ में कंकड़-पत्थर रखे हुए हूं मैं। अगर कोई मुझसे कहे कि इनका त्याग करो, तो मैं जरूर पूछंगा, किसलिए? क्योंकि त्याग का कोई अर्थ ही नहीं है, अगर किसलिए का उत्तर न दिया जा सके। इसलिए तथाकथित धार्मिक साधु-संन्यासी, संत, लोगों को समझाते रहते हैं कि छोड़ो, और तत्काल बताते रहते हैं कि किसलिए।
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