________________
ताओ उपनिषद भाग २
तो लाओत्से बहुत गहराई में मनुष्य के बंधन की चर्चा कर रहा है। यदि मुझे इन दोनों में सुख और दुख में, सम्मान और अपमान में, प्रशंसा और निंदा में-एक का ही दर्शन होने लगे, जन्म और मृत्यु में एक की ही झलक मिलने लगे, तो जगत के प्रति दौड़ती हुई वासना के लिए कोई गति नहीं रह जाएगी।
एलिस नाम की लड़की स्वर्ग में पहुंच गई है-परियों के देश में। रानी के पास खड़ी है वृक्ष के नीचे। खड़ी कहना ठीक नहीं, दोनों दौड़ रही हैं। रानी भी दौड़ रही है, एलिस भी दौड़ रही है। घंटों दौड़ने के बाद एलिस ऊपर देखती है-वृक्ष जहां था, वहीं है। और वे दोनों भी जहां थीं, वही हैं। कहीं कोई फर्क नहीं हुआ। और पसीने-पसीने हो गई हैं। तो एलिस रानी से पूछती है, दिन भर हो गया दौड़ते-दौड़ते, थक गए हम, अजीब है तुम्हारा मुल्क, इतना दौड़ कर भी और कहीं पहुंचना नहीं हो रहा है! वृक्ष वहीं के वहीं, हम वहीं के वहीं। तो रानी उससे कहती है, इतने दौड़ने के कारण ही वहीं के वहीं हैं; अगर न दौड़ते, तो सोच, क्या हालत होती? इतना दौड़ने के कारण ही वहीं के वहीं हैं; सोच, न दौड़ते, तो क्या हालत होती?
हम सारे लोग भी दौड़ते हैं जिंदगी भर और वहीं के वहीं खड़े रहते हैं। और हमारे मन में भी यही तर्क होता है कि इतना दौड़ कर भी जब वहीं के वहीं खड़े हैं; अगर न दौड़ते, तो और फजीहत होती। इतनी सम्मान की कोशिश की, तब भी इतना अपमान मिला; अगर सम्मान की कोशिश न करते, तो क्या हालत होती! इतना धन खोजा, फिर भी निर्धन के निर्धन बने हैं; अगर खोजते ही न, तब तो नर्क में पड़ जाते।
लेकिन लाओत्से से अगर एलिस पूछती, तो लाओत्से कहता कि मत दौड़, और रुक कर देख! क्योंकि जब दौड़ कर भी यहीं की यहीं बनी है और कहीं पहुंचना नहीं होता, तो रुक कर भी देख लेना चाहिए।
सारी दुनिया में बस दो ही तरह के तर्क हैं। एक तो यह एलिस को परियों की रानी ने जो तर्क दिया। यह सामान्य बुद्धि का तर्क है, जो सदा यही कहती है। वह यही कहती है कि इतनी मेहनत उठा कर, इतना दौड़ कर ये कंकड़-पत्थर हाथ लगे हैं; अगर बिलकुल न दौड़ें, तो बहुत मुसीबत हो जाएगी। दौड़ते तो रहो। दूसरा तर्क बुद्ध और महावीर और लाओत्से का है। वे कहते हैं, रुक कर भी देखो! दौड़ो ही मत।।
रानी से एलिस फिर पूछती है, तो इस वृक्ष से आगे जाने के लिए क्या किया जाए? रानी ने बहुत मजेदार बात कही। और वह बात यह है, रानी ने उससे कहा कि जितनी तुममें ताकत हो, जितनी तुम दौड़ सकती हो, अगर उतनी ताकत से तुम दौड़ो, तो इस वृक्ष के नीचे बने रहने के लिए काफी है। जितनी तुममें ताकत है, अगर उतनी पूरी ताकत लगा कर दौड़ो, तो तुम इस वृक्ष के नीचे बनी रहोगी। अगर इससे आगे जाना है, तो उससे दुगुनी ताकत से दौड़ना जरूरी है।
लेकिन उससे दुगुनी ताकत हो कैसे सकती है? रानी ने कहा कि जितनी तुममें ताकत है, अगर पूरी ताकत से दौड़ो, तो इस वृक्ष के नीचे बनी रहोगी। अगर इससे आगे जाना है, तो दुगुनी ताकत से दौड़ना जरूरी है। एब्सर्ड है, बेमानी है, कोई अर्थ नहीं है। क्योंकि दुगुनी ताकत का कोई प्रयोजन न रहा। जब पूरी ताकत से दौड़ कर यहीं बने रहोगे, तो दुगुनी ताकत कहां से आएगी? लेकिन एलिस को भी तर्क जंचा। और उसने कहा, यह बात ठीक है। तो हम दुगुनी ताकत से दौड़ने की कोशिश करें।
हमको भी यही जंचता है। जब हम इस जीवन में सम्मान की बहुत कोशिश करते हैं और सम्मान नहीं मिलता, तो हम सोचते हैं, और दुगुनी ताकत से कोशिश करें। यश चाहते हैं और नहीं मिलता, तो सोचते हैं, और पूरी ताकत लगा दें; शायद ताकत कम लगाई जा रही है। लेकिन ध्यान रहे कि जितनी ज्यादा ताकत यश के लिए लगाई जाएगी, उतना ज्यादा अपयश मिलेगा। और जितनी सत्कार और सम्मान के लिए चेष्टा की जाएगी, उतना ही असम्मान और असत्कार मिलेगा। क्योंकि जीवन द्वंद्व के बीच एक संतुलन है।
148