________________
एक ही सिक्के के दो पहलू : सम्मान व अपमान, लोभव भय
हम भी, हमारे सब के सोचने का यही भ्रांत ढंग है। लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, दुख से कैसे छुटकारा हो? नहीं हो सकता उनका, जब तक कि वे मुझसे पूछने न आएं कि सुख से कैसे छुटकारा हो? क्योंकि सुख चुनाव है; दुख परिणाम है। सुख मेरे हाथ में है; दुख मेरे हाथ में नहीं है।
ऐसा समझें कि मैं दौडूं और फिर मैं कहूं कि मेरे पीछे जो छाया दौड़ती है, वह न दौड़े। इस छाया के दौड़ने से कैसे छुटकारा हो? तो मैं कहूंगा, मेरा दौड़ना न दौड़ना मेरे हाथ में है, लेकिन मेरी छाया का दौड़ना न दौड़ना मेरे हाथ में नहीं है। मैं न दौडूं, छाया न दौड़ेगी। मैं दौडूं, तो फिर छाया को नहीं रोका जा सकता।
दुख छाया है; सुख चुनाव है। सम्मान चुनाव है; अपमान छाया है, परिणाम है। हम सभी परिणाम से बचना चाहते हैं। हम बीज बोते हैं, पानी डालते हैं, खाद डालते हैं। और पौधा अंकुरित न हो, इसकी चेष्टा में लगे रहते हैं। सारी चेष्टा करते हैं कि पौधा अंकुरित हो और मन में रहता है कि पौधा अंकुरित न हो। बोते हैं सुख। दुख उसका ही अंकुर है। लेकिन ये दोनों इकट्ठे नहीं दिखाई पड़ते। जिसे दिखाई पड़ते हैं, वह आदमी धार्मिक हो जाता है। धार्मिक की मेरी परिभाषा यही है कि जिसे द्वंद्व में दो नहीं दिखाई पड़ते, एक ही दिखाई पड़ने लगता है। सुख और दुख एक ही चीज के छोर हो जाते हैं। सम्मान-अपमान एक ही चीज के छोर हो जाते हैं।
और ध्यान रहे, यह जैसे ही दिखाई पड़ता है, वैसे ही मुझे पता चल जाता है कि मैं क्या कर सकता हूं और क्या नहीं कर सकता हूं! कहां तक मेरी सामर्थ्य है और कहां से मेरी सामर्थ्य समाप्त हो जाती है!
मैं अपने हाथ में एक धनुष-बाण लिए खड़ा हूं। जब तक तीर मैंने नहीं छोड़ा है, मेरे हाथ में है। छोड़ देने के बाद फिर मेरे हाथ में नहीं है। मेरे भीतर एक शब्द घना हुआ। जब तक मैंने नहीं बोला है, तब तक मैं मालिक हूं। मैंने बोल दिया, फिर मेरी मालकियत खो गई।
पहला कदम सुख, सम्मान, सत्ता के चुनाव का है। दूसरा कदम अनिवार्य है। फिर दूसरे कदम से नहीं बचा जा सकता।
लाओत्से कहता है कि अगर ये दोनों दिखाई पड़ जाएं, तो क्या होगा परिणाम?
अगर ये दोनों एक साथ दिखाई पड़ जाएं, एक ही दिखाई पड़ जाएं, तो जीवन से वासना तिरोहित हो जाएगी। क्योंकि कोई भी दुख नहीं चाहता, हालांकि सभी को दुख मिलता है। और कोई भी दुख नहीं चाहता। सभी सुख चाहते हैं, और किसी को सुख मिलता नहीं है। और आदमी बहुत अदभुत है, गणित भी नहीं लगाता। कोई दुख नहीं चाहता जगत में, और सभी दुखी हैं। और सभी सुख चाहते हैं, और कोई आदमी छाती पर हाथ रख कर नहीं कह पाता कि मैं सुखी हूं। तो जरूर कहीं न कहीं कोई बुनियादी भूल हो रही है। और वह बुनियादी भूल एक से नहीं हो रही है, शायद सभी से हो रही है।
वह भूल यही है : दुख को कोई भी नहीं चाहता, सुख को सभी चाहते हैं। सुख को चुनते हैं, और दुख परिणाम बन जाता है। सुख की तरफ दौड़ते हैं, और दुख हाथ में आता है। जिसे दुख से बचना है, उसे सुख से बचना सीखना पड़े। यही साधना है। और सुख से बचना सीखना बड़ा कठिन मालूम पड़ेगा। लेकिन इतना कठिन नहीं है जितना दुख। जब रास्ते पर मुझे कोई नमस्कार करे, तभी मुझे बच जाना चाहिए। तभी मुझे देख लेना चाहिए कि कहीं कोने-किनारे पर गाली भी खड़ी होगी। तभी उस नमस्कार में मुझे उसकी प्रतिध्वनि भी सुन लेनी चाहिए, जो विपरीत है, तो मैं बच जाऊंगा। जरूरी नहीं है कि गाली न मिले, गाली फिर मिल सकती है। लेकिन तब मेरे लिए अर्थहीन है। मेरे भीतर उससे कोई अंतर नहीं पड़ेगा। तब गाली देने वाले की और नमस्कार करने वाले की क्रियाएं होंगी, वे उनकी ही होंगी; उनसे मेरा कोई संबंध नहीं जुड़ेगा। मेरा संबंध न जुड़े, तो मैं मुक्त हो गया। और ऐसी मुक्ति में ही आनंद की धारा अवतरित होती है।
147