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ताओ उपनिषद भाग २
विपरीत का दर्शन लाओत्से का बुनियादी सूत्र है। लाओत्से कहता है, हर घड़ी वह जो विपरीत है, उसे भी देख लेना। एक को ही मत देखना। जीवन द्वंद्व है। दूसरे को भी ठीक से देख लेना। और वह दूसरे से बच न सकोगे। जिसने एक को चुना, उसने दोनों को चुन लिया। और जिसको दोनों से बचना हो, उसे एक को भी नहीं चुनना चाहिए।
लाओत्से को उसके मुल्क का सम्राट प्रधानमंत्री बना लेना चाहता था। लाओत्से भागता फिरता था एक गांव से दूसरे गांव। जब दूसरे गांव में सम्राट के लोग पहुंचते, तो पता चलता कि वह तीसरे गांव चला गया। सम्राट भी हैरान था। प्रधानमंत्री बनाने के लिए उत्सुकता थी उसकी। और यह आदमी भाग क्यों रहा है? आखिर सम्राट ने एक संदेशवाहक भेजा और लाओत्से से कहा, व्यर्थ मत भागो, परेशान मत होओ। इतना ही मुझे बता दो कि मैं तुम्हें एक महान सम्मान के पद पर बिठाना चाहता हूं, इस राष्ट्र का बड़े से बड़ा सम्मान कि तुम्हें मैं प्रधानमंत्री बनाना चाहता हूं, तुम भाग क्यों रहे हो? लाओत्से ने खबर भिजवाई कि सम्मान से मैं नहीं भाग रहा हूं। मैं उस अपमान से भाग रहा हूं, जो हर सम्मान के पीछे छिपा है।
लेकिन वह दूसरा हमें दिखाई नहीं पड़ता। उस दूसरे को देख लेना ही बुद्धिमत्ता है। हर जगह-कोई एक आयाम में नहीं, सभी आयाम में दूसरा सदा मौजूद है। अगर कोई व्यक्ति जीवन को ऐसा बना ले कि उसे हर जगह यह द्वंद्व दिखाई पड़ जाए...। और ध्यान रहे, अगर द्वंद्व का दर्शन हो जाए, तो वासना क्षीण हो जाएगी।
बहुत लोग समझाते हैं कि वासना छोड़ दो, इच्छा छोड़ दो। लेकिन लाओत्से का सूत्र बहुत गहरा है। वह नहीं कहता इच्छा छोड़ दो। वह कहता है, इच्छा के जो विपरीत है, उसको भी ठीक से देख लो। इच्छा छूट जाएगी। अगर मुझे सच में यह दिखाई पड़ जाए कि मित्र बनाना शत्र बनाने का उपाय है, अगर यह सच में मुझे दिखाई पड़ जाए, इसमें धोखा न हो, यह बौद्धिक समझ न हो, यह ऊपरी-ऊपरी न हो, यह गहरा और प्राणों में उतर जाए और मुझे दिखाई पड़ जाए कि मित्र बनाना शत्रु बनाने का पहला चरण है, तो मित्र न बनाऊं, ऐसी कोई चेष्टा न करनी पड़ेगी।
इस संबंध में एक मजे की बात खयाल में लेनी चाहिए।
मित्र बनाना मेरे हाथ में है, शत्रु न बनाना मेरे हाथ में नहीं है। अगर मैंने पहला कदम उठा लिया, तो दूसरा कदम मेरे हाथ में नहीं है। पहला कदम हम सब उठा लेते हैं। और चाहते हैं, दूसरा कदम उठने से रुक जाए। वह हमारे हाथ में नहीं है। सफलता मैंने मांग ली। वह मैं न मांगता, वह मेरे हाथ में थी। लेकिन असफलता फिर मेरे हाथ के बाहर है। सम्मान मैंने चाह लिया, वह मेरे हाथ में था। दूसरी चीज मेरे हाथ में नहीं है।
बुद्ध ने बहुत मजे की बात कही है। बुद्ध ने कहा है, मृत्यु की फिकर छोड़ो, जन्म से बचने की कोशिश करो। क्योंकि जन्म ले लिया, तो फिर मृत्यु हाथ में नहीं है। तो बुद्ध के पास एक ब्राह्मण आया है। और वह ब्राह्मण कह रहा है, मझे जन्म-मरण से कैसे छुटकारा मिले? तो बुद्ध ने कहा, मरण तो तू मरण पर छोड़; तू जन्म से ही छुटकारा पा ले।
आमतौर से हम कहते हैं, जन्म-मरण से कैसे छुटकारा मिले? मरण आपके हाथ में नहीं है। उससे आप छुटकारा नहीं पा सकते। आपके हाथ में पहला सूत्र है-जन्म। उससे आप छुटकारा पा सकते हैं। और जन्म न हो, तो मरण का कोई उपाय नहीं रह जाता। जन्म होगा, तो ही मृत्यु हो सकती है।
तो बुद्ध ने उससे कहा, तू यही फिक्र कर कि जन्म कैसे न हो। जन्म क्यों होता है?
उस आदमी की समझ में नहीं आया। क्योंकि वह जो कह रहा था, जन्म-मरण से छुटकारा हो, उसमें जन्म का उसे खयाल ही नहीं था। असल में, मरण से ही छुटकारा चाहता था। उसने कहा कि मृत्यु से बहुत भय लगता है, बड़ी घबड़ाहट होती है, इसीलिए तो छुटकारा चाहता हूं।
वह आदमी जन्म से छुटकारा नहीं चाहता, वह असल में ऐसा जन्म चाहता है, जहां फिर मृत्यु न हो। वह ऐसा जीवन चाहता है, जिसमें मृत्यु न हो। वह जन्म से छुटकारा नहीं चाहता, वह मृत्यु से छुटकारा चाहता है।
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